श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
प्रथम अध्याय
अध्याय का नाम- श्रीभगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर समस्त विश्व को श्रीगीता के रूप में जो महान् उपदेश दिया है, यह अध्याय उसकी अवतारणा के रूप में है। इसमें दोनों ओर के प्रधान-प्रधान योद्धाओं के नाम गिनाये जाने के बाद मुख्यतया अर्जुन के बधुनाश की आशंका से उत्पन्न मोहजनित विषाद का ही वर्णन है। इस प्रकार का विषाद भी अच्छा संग मिल जाने पर सांसारिक भोगों में वैराग्य की भावना द्वारा कल्याण की ओर अग्रसर करने वाला हो जाता है। इसलिये इसका नाम ‘अर्जन-विषाद-योग’ रखा गया है। अध्याय का संक्षेप- इस अध्याय के पहले श्लोक में धृतराष्ट्र ने संजय से युद्ध का विवरण पूछा है इस पर संजय ने दूसरे में द्रोणाचार्य के पास जाकर दुर्योधन के बातचीत आरम्भ करने का वर्णन किया है, तीसरे में दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से विशाल पाण्डव-सेना देखने के लिये कहकर चौथे से छठे तक उस सेना के प्रमुख योद्धाओं के नाम बतलाये हैं। सातवें में द्रोणाचार्य से अपनी सेना के प्रधान सेनानायकों को भली-भाँति जान लेने के लिये कहकर आठवें और नवें श्लोकों में उनमें से कुछ के नाम और सब वीरों के पराक्रम तथा युद्ध कौशल का वर्णन किया है। दसवें में अपनी सेना को अजेय और पाण्डवों की सेना को अपनी अपेक्षा कमज़ोर बतलाकर ग्यारहवें में सब वीरों से भीष्म की रक्षा करने के लिये अनुरोध किया है। बारहवें में भीष्म पितामह के शंख बजाने का और तेरहवें में कौरव-सेना में शंख, नगारे, ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि विभिन्न बाजों के एक ही साथ बज उठने का वर्णन है। चौदहवें से लेकर अठारहवें तक क्रमशः भगवान् श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीमसेन, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव तथा पाण्डव सेना के अन्यान्य समस्त विशिष्ट योद्धाओं के द्वारा अपने-अपने शंख बजाये जाने का और उन्नीसवें में उस शंखध्वनि के भयंकर शब्द से आकाश और पृथ्वी के गूँज उठने तथा दुर्योधनादि के व्यथित होने का वर्णन है। बीसवें और इक्कीसवें में धृतराष्ट्र-पुत्रों को युद्ध के लिये तैयार देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से अपना रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलने के लिये कहा है और बाईसवें तथा तेईसवें में सारी सेना को भली-भाँति देख चुकने तक रथ को वहीं खड़े रखने का संकेत करके सबको देखने की इच्छा प्रकट की है। चौबीसवें और पच्चीसवें में अर्जुन ने अनुरोध के अनुसार रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करके श्रीकृष्ण ने युद्ध के लिये एकत्रित सब वीरों को देखने के लिये अर्जुन से कहा है, इसके बाद तीसवें तक स्वजन-समुदाय को देखकर अर्जुन के व्याकुल होने का तथा अर्जुन के द्वारा अपनी शोकाकुल स्थिति का वर्णन है। इकतीसवें श्लोक में युद्ध के विपरीत परिणाम की बात करकर बत्तीसवें और तैंतीसवें में अर्जुन ने विजय और राज्यसुख न चाहने की युक्तिपूर्ण दलील दी है। चौंतीसवें और पैंतीसवें में आचार्यादि स्वजनों का वर्णन करके अर्जुन ने ‘मुझे मार डालने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन आचार्य और पिता-पुत्रादि आत्मीय स्वजनों को मारना नहीं चाहता’ ऐसा कहकर छत्तीसवें और सैंतीसवें में दुर्योधनादि स्वजनों के आततायी होने पर भी उन्हें मारने में पाप की प्राप्ति और सुख तथा प्रसन्नता का अभाव बतलाया है, अड़तीसवें तथा उनतालीसवें में कुल के नाश और मित्रद्रोह से होने वाले पाप से बचने के लिये युद्ध न करना उचित बतलाकर चालीसवें से चौवालीसवें में कुलनाश से उत्पन्न होने वाले दोषों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। पैंतालीसवें और छियालीसवें में राज्य और सुखादि के लाभ से स्वजनों को मारने के लिये की हुई युद्ध की तैयारी को महान् पाप का आरम्भ बतलाकर शोक प्रकाश करते हुए अर्जुन ने दुर्योधनादि के द्वारा अपने मारे जाने को श्रेष्ठ बतलाया है और अन्त के सैंतालीसवें श्लोक में युद्ध न करने का निश्चय करके शोकनिमग्न अर्जुन ने शस्त्रत्यागपूर्वक रथ पर बैठ जाने की बात कहकर संजय ने अध्याय की समाप्ति की है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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