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सप्तदश अध्याय
सम्बन्ध- सोलहवें अध्याय के आरम्भ में श्रीभगवान् ने निष्कामभाव से सेवन किये जाने वाले शास्त्राविहित गुण और आचरणों को दैवी-सम्पदा के नाम से वर्णन करके फिर शास्त्राविपरीत आसुरी सम्पत्ति का कथन किया। साथ ही आसुर-स्वभाव वाले पुरुषों को नरकों में गिराने की बात कही और यह बतलाया कि काम, क्रोध, लोभ ही आसुरी सम्पदा के प्रधान अवगुण हैं और ये तीनों ही नरकों के द्वार है; इनका त्याग करके जो आत्मकल्याण के लिये साधन करता है, वह परमगति को प्राप्त होता है। इसके अनन्तर यह कहा कि जो शास्त्रविधि का त्याग करके, मनमाने ढंग से अपनी समझ से जिसको अच्छा कर्म समझता है, वही करता है, उसे अपने उन कर्मों का फल नहीं मिलता, सिद्धि के लिये किये गये कर्म से सिद्धि नहीं मिलती; सुख के लिये किये गये कर्म से सुख नहीं मिलता और परमगति तो मिलती ही नहीं। अतएव करने और न करनेयोग्य कर्मों की व्यवस्था देने वाले शास्त्रों के विधान के अनुसार ही तुम्हें निष्काम भाव से कर्म करने चाहिये। इससे अर्जुन के मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि जो लोग शास्त्रविधि को छोड़कर मनमाने कर्म करते हैं, उनके कर्म व्यर्थ होते हैं- यह तो ठीक ही है। परंतु ऐसे लोग भी तो हो सकते हैं जो शास्त्रविधि का तो न जानने के कारण अथवा अन्य किसी कारण से त्याग कर बैठते हैं, परंतु यज्ञ-पूजा शुभ कर्म श्रद्धापूर्वक करते हैं, उनकी क्या स्थिति होती है? इस जिज्ञासा को व्यक्त करते हुए अर्जुन भगवान् से पूछते हैं-
अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विता: ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तम: ।। 1 ।।
अर्जुन बोले- हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रविधि को त्यगकर श्रद्धा से युक्त हुए देवादि का पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन-सी? सात्त्विकी है तथा राजसी किंवा तामसी? ।। 1 ।।
प्रश्न- शास्त्रविधि के त्याग की बात सोलहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में भी कही जा चुकी है और यहाँ भी कहते हैं। इन दोनों का एक ही भाव है या इनमें कुछ अन्तर है?
उत्तर- अवश्य अन्तर है। वहाँ अवहेलना करके शास्त्रविधि के त्याग का वर्णन है और यहाँ न जानने के कारण होने वाले शास्त्रविधि के त्याग का है। उनको शास्त्र की परवा ही नहीं है; वे अपने मन में जिस कर्म को अच्छा समझते हैं, वहीं करते हैं। इसी से वहाँ ‘वर्तते कामकारतः’ कहा गया है। परंतु यहाँ ‘यजन्ते श्रद्धयान्विताः’ कहा है, अतः इन लोगों में श्रद्धा है। जहाँ श्रद्धा होती है, वहाँ अवहेलना नहीं हो सकती। इस लोगों को परिस्थिति और वातावरण की प्रतिकूलता से, अवकाश के अभाव से अथवा परिश्रम तथा अध्ययन आदि की कमी से शास्त्रविधि का ज्ञान नहीं होता और इस अज्ञता के कारण ही इनके द्वारा उसका त्याग होता है।
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