षष्ठ अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाले योगभ्रष्ट की गति का वर्णन करके तथा योग के जिज्ञासु की महिमा बतलाकर अब योगियों के कुल में जन्म लेने वाले योगभ्रष्ट की गति का पुनः प्रतिपादन करते हैं-
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिष: ।
अनेकजन्मसंसिद्ध स्ततो याति परां गतिम्।। 45 ।।
परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कार बल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परम गति को प्राप्त हो जात है।। 45 ।।
प्रश्न- यहाँ ‘तु’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- श्रीमानों के घर में जन्म लेने वालों की और योग के जिज्ञासु की अपेक्षा योगिकुल में जन्म लेने वाले योगभ्रष्ट पुरुष की गति की विलक्षणता दिखलाने के लिये ही ‘तु’ का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न- ‘योगी’ के साथ ‘प्रयत्नाद् यतमानः’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- तैंतालीसवें श्लोक में यह बात कही गयी है कि योगियों के कुल में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पुरुष उस जन्म में योगसिद्धि की प्राप्ति के लिये अधिक प्रयत्न करता है। इस श्लोक में उसी योगी को परमगति की प्राप्ति बतलायी जाती है, इसी बात को स्पष्ट करने के लिये यहाँ ‘योगी’ के साथ ‘प्रयत्नाद् यतमानः’ विशेषण दिया गया है; क्योंकि उसके प्रयत्न का फल वहाँ उस श्लोक में नहीं बतलाया गया है, उसे यहाँ बतलाया गया है।
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