षष्ठ अध्याय
प्रश्न- ‘अनेकजन्मसंसिद्धः’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- तैंतालीसवें श्लोक में यह बात कही गयी है कि योगिकुल में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पूर्वजन्मों में किये हुए योगाभ्यास के संस्कारों को प्राप्त हो जाता है, यहाँ उसी बात को स्पष्ट करने के लिये ‘अनेकजन्मसंसिद्धः’ विशेषण दिया गया है। अभिप्राय यह है कि पिछले अनेक जन्मों में किया हुआ अभ्यास और इस जन्म का अभ्यास दोनों ही उसे योगसिद्धि की प्राप्ति कराने में अर्थात् साधन की पराकाष्ठा तक पहुँचाने में हेतु हैं, क्योंकि पूर्वसंस्कारों के बल से ही वह विशेष प्रयत्न के साथ इस जन्म में साधन का अभ्यास करके साधन की पराकाष्ठा को प्राप्त करता है।
प्रश्न- ‘संशुद्धकिल्बिषः’ का क्या भाव है?
उत्तर- जिसके समस्त पाप सर्वथा धुल गये हैं, उसे ‘संशुद्धकिल्बिषः’ कहते हैं। इससे यह भाव दिखलाया गया है कि इस प्रकार अभ्यास करने वाले योगी में पाप का लेश भी नहीं रहता।
प्रश्न- ‘ततः’ का क्या भाव है?
उत्तर- ‘ततः’ पद यहाँ तत्पश्चात् के अर्थ में आया है। इसका प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि साधन की पराकाष्ठारूप संसिद्धि को प्राप्त होने के पश्चात् तत्काल ही परमगति की प्राप्ति हो जाती है, फिर जरा भी विलम्ब नहीं होता।
प्रश्न- ‘परमगति’ की प्राप्ति क्या है?
उत्तर- परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होना ही परमगति की प्राप्ति है; इसी को परमपद की प्राप्ति, परमधाम की प्राप्ति और नैष्ठि की शान्ति की प्राप्ति भी कहते हैं।
|