श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
श्रीभगवानुवाच
उत्तर- अर्जुन को ‘कुरुश्रेष्ठ’ नाम से सम्बोधित करके भगवान् यह भाव दिखलाते हैं कि तुम कुरुकुल में सर्वश्रेष्ठ हो, इसलिये मेरी विभूतियों का वर्णन सुनने के अधिकारी हो। प्रश्न- ‘दिव्याः’ विशेषण सहित ‘आत्मविभूतयः’ पद का क्या अर्थ है और उन सबको अब प्रधानता से कहूँगा-इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जब सारा जगत् भगवान् का स्वरूप है, तब साधारणतया तो सभी वस्तुएँ उन्हीं की विभूति हैं; परंतु वे सब-के-सब दिव्य विभूति नहीं हैं। दिव्य विभूति उन्हीं वस्तुओं या प्राणियों को समझना चाहिये, जिनमें भगवान् के तेज, बल, विद्या, ऐश्वर्य कान्ति और शक्ति आदि का विशेष विकास हो। भगवान् यहाँ ऐसी ही विभूतियों के लिये कहते हैं कि मेरी ऐसी विभूतियाँ अनन्त हैं, अतएव सबका तो पूरा वर्णन हो ही नहीं सकता। उनमें से जो प्रधान-प्रधान हैं, यहाँ मैं उन्हीं का वर्णन करूँगा। प्रश्न- मेरे विस्तार का अन्त नहीं है- इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इससे भगवान् अर्जुन के अठारहवें श्लोक में कही हुई उस बात का उत्तर दे रहे हैं, जिसमें अर्जुन ने विस्तारपूर्वक (पूर्णरूप से) विभूतियों का वर्णन करने के लिये प्रार्थना की थी। भगवान् कहते हैं कि मेरी सारी विभूतियों का तो वर्णन हो ही नहीं सकता; मेरी जो प्रधान-प्रधान विभूतियाँ है, उनका भी पूरा वर्णन सम्भव नहीं है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विश्व में अनन्त पदार्थों, भावों और विभिन्न जातीय प्राणियों का विस्तार है। इन सबका यथाविधि नियन्त्रण और संचालन करने के लिय जगत्स्रष्टा भगवान् के अटल नियम के द्वारा विभिन्न जातीय पदार्थों, भावों और जीवों के विभिन्न समष्टि-विभाग कर दिये गये हैं और उन सबका ठीक नियमानुसार सृजन, पालन तथा संहार का कार्य चलता रहे-इसके लिये प्रत्येक समष्टि-विभाग के अधिकारी नियुक्त हैं। रुद्र, वसु, आदित्य, इन्द्र, साध्य, विश्वेदेव, मरुत्, पितृदेव, मनु और सप्तर्षि आदि इन्हीं अधिकारियों की विभिन्न संज्ञाएँ हैं। इनके मूर्त और अमूर्त दोनों ही रूप माने गये हैं। ये सभी भगवान् की विभूतियाँ हैं।
सर्वे च देवा मनवः समस्ताः सप्तर्षयो ये मनुसूनवश्च। इन्द्रश्च योऽयं त्रिदशेशभूतो विष्णोरशेषास्तु विभूतयस्ताः।। (श्रीविष्णुपुराण 3। 1। 46)
‘सभी देवता, समस्त मनु, सप्तर्षि तथा जो मनु के पुत्र और ये देवतओं के अधिपति इन्द्र हैं- ये सभी भगवान् विष्णु की ही विभूतियाँ हैं।’ इनके अतिरिक्त, सृष्टि-संचालनार्थ प्रजा के समष्टि-विभागों में से यथायोग्य निर्वाचन कर लिया जाता है। इस सारे निर्वाचन में प्रधानतया उन्हीं को लिया जाता है, जिनमें भगवान् के तेज, शक्ति, विद्या, ज्ञान और बल आदि का विशेष विकास हो। इसीलिये भगवान् ने इन सबको भी अपनी विभूति बतलाया है।
वायुपुराण के सत्तरवें अध्याय में वर्णन आता है कि ‘महर्षि कश्यप के द्वारा जब प्रजा की सृष्टि हो गयी, तब प्रजापति ने विभिन्न जातीय प्रजाओं में से जो सबसे श्रेष्ठ और तेजस्वी थे, उनको चुनकर उन-उन जातियों की प्रजा का नियन्त्रण करने के लिये उन्हें राजा बना दिया। चन्द्रमा को नक्षत्र-ग्रह आदि का, बृहस्पति को आंगिरसों का, शुक्राचार्य को भार्गवों का, विष्णु को आदित्यों का, पावक को वसुओं का, दक्ष को प्रजापतियों का, प्रह्लाद को दैत्यों का, इन्द्र को मरुतों का, नारायण को साध्यों का, शंकर को रुद्रों का, वरुण को जलों का, कुबेर को यक्ष-राक्षसादि का, शूलपाणि को भूत-पिशाचों का, सागर को नदियों का, चित्ररथ को गन्धर्वों का, उच्चैःश्रवा को घोड़ों का, सिंह को पशुओं का, साँड़ को चौपायों का, गरुड़ को पक्षियों का, शेष को डसने वालों का, वासुकि को नागों का, तक्षक को दूसरी जाति के सर्पों और नागों का, हिमवान को पर्वतों का, विप्रचित्ति को दानवों का, वैवस्वत को पितरों का, पर्जन्य को सागर, नदी और मेघों को, कामदेव को अप्सराओं का, संवत्सर को ऋतु और मासादि का, सुधामा को पूर्व का, केतुमान् को पश्चिम का और वैवस्वत मनु को मनुष्यों का राजा बनाया। इन्हीं सब अधिकारियों द्वारा समस्त जगत् का संचालन और पालन हो रहा है।’ यहाँ इस अध्याय में जो विभूति वर्णन है, वह बहुत अंश में इसी से मिलता-जुलता है।
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