श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
उत्तर- सभी मनुष्य अपनी-अपनी इच्छित वस्तुओं के लिये जिससे याचना करें, उसे ‘जनार्दन’ कहते हैं। यहाँ अर्जुन भगवान् को जनार्दन नाम से पुकारकर यह भाव दिखलाते हैं कि आपसे सभी मनुष्य अपनी इष्ट-वस्तुओं को चाहते हैं और आप सबको सब कुछ देने में समर्थ हैं; अतएव मैं भी आपसे जो कुछ प्रार्थना करता हूँ, कृपा करके उसे भी पूर्ण कीजिये। प्रश्न- यहाँ ‘योगम्’ और ‘विभूतिम्’ पद किनके वाचक हैं? तथा उन दोनों को फिर से विस्तारपूर्वक कहने के लिये प्रार्थना करने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जिस अपनी ईश्वरीय शक्ति के द्वारा भगवान् स्वयं इस जगत् के रूप में प्रकट होकर अनेक रूपों में विस्तृत होते हैं, उस शक्ति का नाम ‘योग’ है और उन विभिन्न रूपों के विस्तार का नाम ‘विभूति’ है। इसी अध्याय के सातवें श्लोक में भगवान् ने इस दोनों शब्दों का प्रयोग किया है, वहाँ इनका अर्थ विस्तारपूर्वक लिखा जा चुका है। उस श्लोक में इन दोनों को तत्त्व से जानने का फल अविचल भक्तियोग की प्राप्ति होना बतलाया गया है। अतएव अर्जुन इन ‘विभूति’ और ‘योग’ दोनों का रहस्य भलीभाँति जानने की इच्छा से बार-बार विस्तारपूर्वक वर्णन करने के लिये भगवान् से प्रार्थना करते हैं। प्रश्न- यहाँ अर्जुन के इस कथन का क्या अभिप्राय है कि ‘आपके अमृतमय वचनों को सुनते-सुनते मेरी तृप्ति ही नहीं होती?’ उत्तर- इससे अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि आपके वचनों में ऐसी माधुरी भरी है, उनसे आनन्द की वह सुधाधारा बह रही है, जिसका पान करते-करते मन कभी अघाता ही नहीं। इस दिव्य अमृत का जितना ही पान किया जाता है, उतनी ही उसकी प्यास बढ़ती जा रही है। मन करता है कि यह अमीरस निरन्तर ही पीता रहूँ। अतएव भगवन्! यह मत सोचिये कि ‘अमुक बात तो कही जा चुकी है, अथवा बहुत कुछ कहा जा चुका है, अब और क्या कहें।’ बस, दया करके यह दिव्य अमृत बरसाते ही रहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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