श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- यहाँ ‘अपि’ पद का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि आत्मा को नित्य और शरीरों को अनित्य समझ लेने के बाद शोक करना या युद्धादि से भयभीत होना उचित नहीं है, यह बात तो मैंने तुमको समझा ही दी है; उसके अतिरिक्त यदि तुम अपने वर्णधर्म की ओर देखो तो भी तुम्हें भयभीत नहीं होना चाहिये, क्योंकि युद्ध से विमुख न होना क्षत्रिय का स्वाभाविक धर्म है।[1] प्रश्न- ‘हि’ पद का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘हि’ पद यहाँ हेतुवाचक है। अभिप्राय यह है कि भयभीत क्यों नहीं होना चाहिये, इसकी पुष्टि उत्तरार्ध में की जाती है। प्रश्न- ‘क्षत्रिय के लिये धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई श्रेय नहीं है’ इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर- इस वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिस युद्ध का आरम्भ अनीति या लोभ के कारण नहीं किया गया हो एवं जिसमें अन्यायाचरण नहीं किया जाता हो किंतु जो धर्मसंगत हो, कर्तव्यरूप से प्राप्त हो और न्यायानुकूल किया जाता हो ऐसा युद्ध ही क्षत्रिय के लिये अन्य समस्त धर्मों की अपेक्षा अधिक कल्याणकारक है। क्षत्रिय के लिये उससे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणप्रद धर्म नहीं है, क्योंकि धर्ममय युद्ध करने वाला क्षत्रिय अनायास ही इच्छानुसार स्वर्ग या मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18। 43
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