श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार अर्जुन की जिज्ञासा के अनुसार त्याग का यानी कर्मयोग का और संन्यास का यानी सांख्ययोग का तत्त्व अलग-अलग समझाकर यहाँ तक उस प्रकरण को समाप्त कर दिया; किंतु इस वर्णन में भगवान ने यह बात नहीं कही कि दोनों में से तुम्हारे लिये अमुक साधन कर्तव्य है, अतएव अर्जुन को भक्तिप्रधान कर्मयोग ग्रहण कराने के उद्देश्य से अब भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा कहते हैं- सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रय: ।
उत्तर- समस्त कर्मों का और उनके फलरूप समस्त भोगों का आश्रय त्याग कर जो भगवान के ही आश्रित हो गया है; जो अपने मन-इन्द्रियों सहित शरीर को, उसके द्वारा किये जाने वाले समस्त कर्मों को और उनके फल को भगवान के समर्पण करके उन सबसे ममता, आसक्ति और कामना हटाकर भगवान के ही परायण हो गया है, भगवान को अपना परम प्राप्य, परमप्रिय, परम हितैषी, परमाधार और सर्वस्व समझकर जो भगवान के विधान में सदैव प्रसन्न रहता है- किसी भी सांसारिक वस्तु के संयोग-वियोग में और किसी भी घटना में कभी हर्ष-शोक नहीं करता, सदा भगवान पर ही निर्भर रहता है तथा जो कुछ भी कर्म करता है, भगवान के आज्ञानुसार उन्हीं की प्रसन्नता के लिये, अपने को केवल निमित्तमात्र समझकर, उन्हीं की प्रेरणा और शक्ति से, जैसे भगवान कराते हैं वैसे ही करता है, एवं अपने को सर्वथा भगवान के अधीन समझता है- ऐसे भक्तिप्रधान कर्मयोगी का वाचक यहाँ ‘मदव्यपाश्रयः’ पद है। प्रश्न- ‘सर्वकर्माणि’ पद यहाँ किन कर्मों का वाचक है? उत्तर- अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार जितने भी शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म हैं- जिनका वर्णन पहले ‘नियतं कर्म’ और ‘स्वभावजं कर्म’ के नाम से किया गया है तथा जो भगवान की आज्ञा और प्रेरणा के अनुकूल हैं-उन समस्त कर्मों का वाचक यहाँ ‘सर्वकर्माणि’ पद है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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