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षोडश अध्याय
सम्बन्ध- सातवें अध्याय के पन्द्रहवें श्लोक में तथा नवें अध्याय के ग्यारहवें और बारहवें श्लोकों में भगवान् ने कहा था कि ‘आसुरी और राक्षसी प्रकृति को धारण करने वाले मूढ़ मेरा भजन नहीं करते, वरं मेरा तिरस्कार करते हैं।’ तथा नवे अध्याय के तेरहवें और चौदहवें श्लोकों में कहा कि ‘दैवी प्रकृति से युक्त महात्माजन मुझे सब भूतों का आदि और अविनाशी समझकर अनन्य प्रेम के साथ सब प्रकार से निरन्तर मेरा भजन करते हैं।’ परंतु दूसरा प्रसंग चलता रहने के कारण वहाँ दैवी प्रकृति और आसुरी प्रकृति के लक्षणों का वर्णन नहीं किया जा सका। फिर पंद्रहवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भगवान् ने कहा कि ‘जो ज्ञानी महात्मा मुझे ‘पुरुषोत्तम’ जानते हैं, वे सब प्रकार से मेरा भजन करते हैं।’ इस पर स्वाभाविक ही भगवान् को पुरुषोत्तम जानकर सर्वभाव से उनका भजन करने वाले दैवी प्रकृतियुक्त महात्मा पुरुषों के और उनका भजन न करने वाले आसुरी प्रकृतियुक्त अज्ञानी मनुष्यों के क्या-क्या लक्षण हैं?- यह जानने की इच्छा होती है। अतएव अब भगवान् दोनों के लक्षण और स्वभाव का विस्तारपूर्वक वर्णन करने के लिये सोलहवाँ अध्याय आरम्भ करते हैं। इसमें पहले तीन श्लोकों द्वारा दैवीसम्पद् से युक्त सात्त्विक पुरुषों के स्वाभाविक लक्षणों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया जाता है-
श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति: ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ।। 1 ।।
श्रीभगवान बोले- भय का सर्वाथा अभाव, अन्त:करण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिये ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान, इन्द्रियों का दमन भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि कर्मों का आचरण एवं वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिये कष्ट सहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्त:करण की सरलता ।। 1 ।।
प्रश्न- ‘अभय’ किसको कहते हैं?
उत्तर- इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग की आशंका से मन में जो कायरतापूर्ण विकार होता है, उसका नाम भय है- जैसे प्रतिष्ठा के नाश का भय, अपमान का भय, निन्दा का भय, रोग का भय, राजदण्ड का भय, भूत-प्रेत का भय और मरण का भय आदि। इन सबके सर्वथा अभाव का नाम ‘अभय’ है।
प्रश्न- ‘सत्त्वसंशुद्धि’ क्या है?
उत्तर- ‘सत्त्व’ अन्तःकरण को कहते हैं। अन्तःकरण में जो राग-द्वेष, हर्ष-शोक, ममत्व-अहंकार और मोह-मत्सर आदि विकार और नाना प्रकार के कलुषित पापमय भार रहते हैं- उनका सर्वथा अभाव होकर अन्तःकरण का पूर्णरूप से निर्मल, परिशुद्ध हो जाना यही ‘सत्त्वसंशुद्धि’ (अन्तःकरण की सम्यक शुद्धि) है।
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