चतुर्थ अध्याय
सम्बन्ध- यहाँ यह प्रश्न उठता है कि उपर्युक्त प्रकार से किये हुए कर्म बन्धन के हेतु नहीं बनते, इतनी ही बात है या उनका और भी कुछ महत्त्व है। इस पर कहते हैं-
गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस: ।
यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते ।।23।।
जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गयी है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसे केवल यज्ञ सम्पादन के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म भली-भाँति विलीन हो जाते हैं ।।23।।
प्रश्न- आसक्ति का सर्वथा नष्ट हो जाना क्या है और ‘गतसंगस्य’ पद किसका वाचक है?
उत्तर- कर्मों और उनके फलरूप समस्त भोगों में तनिक भी आसक्ति या कामना का न रहना, आसक्ति का सर्वथा नष्ट हो जाना है। इस प्रकार जिसकी आसक्ति का अभाव हो गया है, उस कर्मयोगी का वाचक यहाँ ‘गतसंगस्य’ पद है। यही भाव कर्म में और फल में आसक्ति के त्याग से तथा सिद्धि और असिद्धि के समत्व से पूर्व श्लोक में दिखलाया गया है।
प्रश्न- ‘मुक्तस्य’ पद का क्या भाव है?
उत्तर- जिसका अन्तःकरण और इन्द्रियों के संघातरूप शरीर में जरा भी आत्माभिमान या ममत्व नहीं रहा है, जो देहाभिमान से सर्वथा मुक्त हो गया है- उस ज्ञानयोगी का वाचक यहाँ ‘मुक्तस्य’ पद है।
प्रश्न- ‘ज्ञानावस्थितचेतसः’ पद का क्या भाव है?
उत्तर- ‘ज्ञानावस्थितचेतसः’ पद भी सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि हो जाने के कारण प्रत्येक क्रिया करते समय जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में लगा रहता है, ऐसे ज्ञानयोगी का ही वाचक है।
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