नवम अध्याय
सम्बन्ध- पूर्वश्लोकों में भगवान् ने समस्त विश्व को अपना स्वरूप बताया फिर यज्ञों द्वारा की जाने वाली देवपूजा को प्रकारान्तर से अपनी ही पूजा बताकर उसका फल आवागमन के चक्र में पड़ना और अपने अनन्य भक्त की उपासना का फल उसे अपनी प्राप्ति करा देना कैसे बताया? इस पर कहते हैं-
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता: ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।। 23 ।।
हे अर्जुन! यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं; किंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात अज्ञानपूर्वक है।।23।।
प्रश्न- ‘श्रद्धयान्विताः’ का क्या अभिप्राय है? तथा यहाँ इस विशेषण का प्रयोग किसलिये किया गया है?
उत्तर- वेद-शास्त्रों में वर्णित देवता, उनकी उपासना और स्वर्गादि की प्राप्तिरूप उसके फल पर जिनका आदरपूर्वक दृढ़ विश्वास हो, उनको यहाँ ‘श्रद्धयान्विताः’ कहा गया है और इस विशेषण का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि जो बिना श्रद्धा के दम्भपूर्वक यज्ञादि कर्मों द्वारा देवताओं का पूजन करते हैं, वे इस श्रेणी में नहीं आ सकते; उनकी गणना तो आसुरी प्रकृति में है।
प्रश्न- ऐसे मनुष्यों की अन्य देवताओं की पूजा करना क्या है? और वह भगवान् की ‘अविधिपूर्वक पूजा’ क्यों है?
उत्तर- जिस कामना की सिद्धि के लिये जिस देवता की पूजा का शास्त्र में विधान है, उस देवता की शास्त्रोक्त यज्ञादि कर्मों द्वारा श्रद्धापूर्वक पूजा करना ‘अन्य देवताओं की पूजा करना’ है। समस्त देवता भी भगवान् के ही अंगभूत हैं, भगवान् ही सबके स्वमी हैं और वस्तुतः भगवान् ही उनके रूप में प्रकट हैं- इस तत्त्व को न जानकर उन देवताओं को भगवान् से भिन्न समझकर सकाम भाव से जो उनकी पूजा करना है, यही भगवान् की ‘अविधिपूर्वक’ पूजा है।
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