श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचदश अध्याय
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: ।[1]
उत्तर- इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मेरा जो नित्यधाम है, वह सच्चिदानन्दमय, दिव्य, चेतन और मेरा ही स्वरूप होने के कारण वास्तव में मुझसे अभिन्न ही है। अतः यहाँ ‘परमधाम’ शब्द मेरे नित्यधाम तथा मेरे स्वरूप और भाव आदि सभी का वाचक है। अभिप्राय यह है कि जहाँ पहुँचने के बाद इस संसार से कभी किसी भी काल में और किसी भी अवस्था में पुनः सम्बन्ध नहीं हो सकता, वही मेरा परमधाम अर्थात् मायातीत धाम है और वही मेरा स्वरूप है। इसी को अव्यक्त, अक्षर और परमगति भी कहते हैं।[2] इसी का वर्णन करती हुई श्रुति कहती है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रुति में भी कहा है-
अर्थात् ‘उस पूर्णब्रह्म परमात्मा को न सूर्य ही प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा, न तारागण और न यह बिजली ही उसे प्रकाशित कर सकती है। जब ये सूर्यादि भी उसे प्रकाशित नहीं कर सकते, तब इस लौकिक अग्नि की तो बात ही क्या है? क्योंकि ये सब उसी के प्रकाशित होने पर उसके पीछे-पीछे प्रकाशित होते हैं और उसके प्रकाश से ही यह सब कुछ प्रकाशित होता है।’ - ↑ 8। 21
- ↑ बृहज्जाबाल-उ. 8। 6
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