श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परंतप ।
उत्तर- जिस यज्ञ में द्रव्य की अर्थात् सांसारिक वस्तु की प्रधानता हो, उसे द्रव्यमय यज्ञ कहते हैं। अतः अग्नि में घृत, चीनी, दही, दूध, तिल, जौ, चावल, मेवा, चन्दन, कपूर, धूप और सुगन्धयुक्त औषधियाँ आदि हवि का विधिपूर्वक हवन करना, दान देना; परोपकार के लिये कुआँ, बावली, तालाब, धर्मशाला आदि बनवाना, बलिवैश्वदेव करना आदि जितने सांसारिक पदार्थों से सम्बन्ध रखने वाले शास्त्र विहित शुभ कर्म हैं- वे सब द्रव्यमय यज्ञ के अन्तर्गत हैं। उपर्युक्त साधनों में इसका वर्णन दैव-यज्ञ, विषय-हवनरूप यज्ञ और द्रव्ययज्ञ के नाम से हुआ है। इनसे भिन्न जो विवेक, विचार और आध्यात्मिक ज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले साधन हैं, वे सब ज्ञानयज्ञ के अन्तर्गत हैं। यहाँ द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानयज्ञ को श्रेष्ठ बतलाकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यदि कोई साधक अपने अधिकार के अनुसार शास्त्र विहित अग्निहोत्र, ब्राह्मण-भोजन, दान आदि शुभ कर्मों का अनुष्ठान न करके केवल आत्मसंयम, शास्त्राध्ययन, तत्त्वविचार और योगसाधन आदि विवेक-विज्ञानसम्बन्धी शुभ कर्मों में से किसी एक का भी अनुष्ठान करता है तो यह नहीं समझना चाहिये कि वह शुभकर्मों का त्यागी है, बल्कि यही समझना चाहिये कि वह उनकी अपेक्षा भी श्रेष्ठ कार्य कर रहा है; क्योंकि द्रव्ययज्ञ भी ममता, आसक्ति और फलेच्छा का त्यागकर ज्ञानपूर्वक किये जाने पर ही मुक्ति का हेतु होता है, नहीं तो उल्टा बन्धन का हेतु बन जाता है और उपर्युक्त साधनों में लगे हुए मनुष्य तो स्वरूप से भी विषयों का त्याग करते हैं। उनके कार्यों में हिंसादि दोष स्वरूप से भी नहीं है- इससे भी वे उत्तम हैं। यथार्थ ज्ञान (तत्त्वज्ञान)- की प्राप्ति में भाव की प्रधानता है, सांसारिक वस्तुओं के विस्तार की नहीं। इसीलिये यहाँ द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ को श्रेष्ठ बतलाया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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