श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय
कर्शयन्त: शरीरस्थं भूतग्राममचेतस: ।
उत्तर- पंचमहाभूत, मन बुद्धि, अहंकार, दस इन्द्रियाँ और पाँच इन्द्रियों के विषय- इन तेईस तत्त्वों के समूह का नाम ‘भूतसमुदाय’ है। इसका वर्णन तेरहवें अध्याय के पाँचवें श्लोक में क्षेत्र के नाम से आ चुका है। प्रश्न- वे लोग भूतसमुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले होते हैं, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- शास्त्र से विपरीत मनमाना घोर तप करने वाले मनुष्य नाना प्रकार के भयानक आचरणों से उपर्युक्त भूतसमुदाय को यानी शरीर को क्षीण और दुर्बल करते हैं, इतना ही नहीं है; वे अपने घोर आचरणों से अन्तःकरण में स्थित परमात्मा को भी क्लेश पहुँचाते हैं। क्योंकि सबके हृदय में आत्मरूप से परमात्मा स्थित है। अतः स्वयं अपने आत्मा को या किसी के भी आत्मा को दुःख पहुँचाना परमात्मा को ही दुःख पहुँचाना है। इसलिये उन्हें भूतसमुदाय को और परमात्मा को क्लेश पहुँचाने वाले कहा गया है। प्रश्न- ‘अचेतसः’ पद का क्या अर्थ है? उत्तर- शास्त्र के प्रतिकूल आचरण करने वाले, बोधशक्ति से रहित, आवरणदोषयुक्त मूढ़ मनुष्यों का वाचक ‘अचेतसः’ पद है। प्रश्न- ऐसे मनुष्यों को आसुर-निश्चय वाले कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- उपर्युक्त शास्त्रविधि से रहित घोर तामस तप करने वाले, दम्भी और घमण्डी मनुष्य सोलहवें अध्याय में वर्णित आसुरी-सम्पदा वाले ही हैं, यी भाव दिखलाने के लिये उनको ‘आसुर-निश्चय वाले’ कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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