श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- भगवान् ने तो कहीं नहीं कहा, किंतु अर्जुन ने भगवान् के वचनों का मर्म और तत्त्व न समझने के कारण ‘दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धि योगाद्धनन्जय’ से यह बात समझ ली कि भगवान् ‘बुद्धियोग’ से ज्ञान का लक्ष्य कराते हैं और उस ज्ञान की अपेक्षा कर्मों को अत्यन्त तुच्छ बतला रहे हैं। वस्तुतः वहाँ ‘बुद्धियोग’ शब्द का अर्थ ‘ज्ञान’ नहीं है; ‘बुद्धियोग’ वहाँ समबुद्धि से होने वाले ‘कर्मयोग’ का वाचक है और ‘कर्म’ शब्द सकाम कर्मों का। क्योंकि उसी श्लोक में भगवान् ने फल चाहने वालों को ‘कृपणाः फलहेतवः’ कहकर अत्यन्त दीन बतलाया है और उन सकाम कर्मों को तुच्छ बतलाकर ‘बुद्धौ शरणमन्विच्छ’ से समबुद्धिरूप कर्मयोग का आश्रय ग्रहण करने के लिये आदेश दिया है; परंतु अर्जुन ने इस तत्त्व को नहीं समझा, इसी से उनके मन में उपर्युक्त प्रश्न की अवतारणा हुई। प्रश्न- ‘बुद्धि’ शब्द का अर्थ यहाँ भी पूर्व की भाँति समबुद्धिरूप कर्मयोग क्यों न लिया जाय? उत्तर- यहाँ तो अर्जुन का प्रश्न है। वे भगवान् के यथार्थ तात्पर्य को समझकर ‘बुद्धि’ शब्द का अर्थ ‘ज्ञान’ ही समझे हुए हैं और इसीलिये वे उपर्युक्त प्रश्न कर रहे हैं। यदि अर्जुन बुद्धि का अर्थ समबुद्धि रूप कर्मयोग समझ लेते तो इस प्रकार के प्रश्न का कोई आधार ही नहीं रहता। अर्जुन ने ‘बुद्धि’ का अर्थ ‘ज्ञान’ मान रखा है, अतएव यहाँ अर्जुन की मान्यता के अनुसार ‘बुद्धि’ शब्द का अर्थ ‘ज्ञान’ ठीक ही किया गया है। प्रश्न- मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं? इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर- भगवान् के अभिप्राय को न समझने के कारण अर्जुन यह माने हुए हैं कि जिन कर्मों को भगवान् ने अत्यन्त तुच्छ बतलाया है, उन्हीं कर्मों में (‘तस्माद्युध्यस्व भारत’ - इसलिये तू युद्ध कर, ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ - तेरा कर्म में ही अधिकार है, ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ - योग में स्थित होकर कर्म कर - इत्यादि विधिवाक्यों से) मुझे प्रवृत्त करते हैं। इसीलिये वे उपर्युक्त वाक्य से भगवान् को मानो उलाहना-सा देते हुए पूछ रहे हैं कि आप मुझे इस युद्धरूप भयानक पाप कर्म में क्यों लगा रहे हैं? प्रश्न- यहाँ ‘जनार्दन’ और ‘केशव’ नाम से भगवान् को अर्जुन ने क्यों सम्बोधित किया? उत्तर- ‘सर्वैर्जनैरद्र्यते याच्यते स्वाभिलषितसिद्धये इति जनार्दनः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार सब लोग जिनसे अपने मनोरथ की सिद्धि के लिये याचना करते हैं, उनका नाम ‘जनार्दन’ होता है तथा ‘क’-ब्रह्मा, ‘अ’-विष्णु और ‘ईश’-महेश - ये तीनों जिनके ‘व’-वपु अर्थात् स्वरूप हैं, उनको ‘केशव’ कहते हैं। भगवान् को इन नामों से सम्बोधित करके अर्जुन यह सूचित कर रहे हैं कि ‘मैं आपके शरणागत हूँ - मेरा क्या कर्तव्य है, यह बतलाने के लिये मैं आपसे पहले भी याचना कर चुका हूँ[1] और अब भी कर रहा हूँ; क्योंकि आप साक्षात् परमेश्वर हैं। अतएव मुझ याचना करने वाले शरणागत जन को अपना निश्चित सिद्धान्त अवश्य बतलाने की कृपा कीजिये।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2। 7
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज