श्रीमद्भगवद्गीता -जयदयाल गोयन्दका पृ. 157

श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका

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तृतीय अध्याय


 
व्यामिश्रेवेण वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।। 2 ।।

आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मोहित कर रहे हैं। इसलिये उस एक बात को निश्चित करके कहिये जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ ।। 2 ।।


प्रश्न- आप मिले हुए-से वचनों द्वारा मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं, इस वाक्य का क्या अभिप्राय है?

उत्तर - जिन वचनों में कोई साधन निश्चित करके स्पष्ट रूप से नहीं बतलाया गया हो, जिनमें कई तरह की बातों का सम्मिश्रण हो, उनका नाम ‘व्यामिश्र’-‘मिले हुए वचन’ हैं। ऐसे वचनों से श्रोता की बुद्धि किसी एक निश्चय पर न पहुँचकर मोहित हो जाती है। भगवान् के वचनों का तात्पर्य न समझने के कारण अर्जुन को भी भगवान् के वचन मिले हुए-से प्रतीत होते थे; क्योंकि ‘बुद्धियोग की अपेक्षा कर्म अत्यन्त निकृष्ट है, तू बुद्धि का ही आश्रय ग्रहण कर’[1] इस कथन से तो अर्जुन ने समझा कि भगवान् ज्ञान की प्रशंसा और कर्मों की निन्दा करते हैं और मुझे ज्ञान का आश्रय लेने के लिये कहते हैं तथा ‘बुद्धियुक्त पुरुष पुण्य-पापों को यहीं छोड़ देता है’[2] इस कथन से यह समझा कि पुण्य-पापरूप समस्त कर्मों का स्वरूप से त्याग करने वाले को भगवान् ‘बुद्धियुक्त’ कहते हैं। इसके विपरीत ‘तेरा कर्म में अधिकार है’[3], ‘तू योग में स्थित होकर कर्म कर’[4] इन वाक्यों से अर्जुन ने यह बात समझी कि भगवान् मुझे कर्मों में नियुक्त कर रहे हैं; इसके सिवा ‘निस्त्रैगुण्यो भव’, ‘आत्मवान् भव’[5] आदि वाक्यों से कर्म का त्याग और ‘तस्माद्युध्यस्व भारत’[6], ‘ततो युद्धाय युज्यस्व’[7], ‘तस्माद्योगाय युज्यस्व’[8] आदि वचनों से उन्होंने कर्म की प्रेरणा समझी।

इस प्रकार उपर्युक्त वचनों में उन्हें विरोध दिखायी दिया। इसलिये उपर्युक्त वाक्य में उन्होंने दो बार ‘इव’ पद का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया है कि यद्यपि वास्तव में आप मुझे स्पष्ट और अलग-अलग ही साधन बतला रहे हैं, कोई बात मिलाकर नहीं कह रहे हैं तथा आप मेरे परमप्रिय और हितैषी हैं, अतएव मुझे मोहित भी नहीं कर रहे हैं वरं मेरे मोह का नाश करने के लिये ही उपदेश दे रहे हैं; किंतु अपनी अज्ञता के कारण मुझे ऐसा ही प्रतीत हो रहा है कि मानो आप मुझे परस्पर-विरुद्ध और मिले हुए-से वचन कहकर मेरी बुद्धि को मोह में डाल रहे हैं।

प्रश्न- यदि अर्जुन को दूसरे अध्याय के उनचासवें और पचासवें श्लोकों को सुनते ही उपर्युक्त भ्रम हो गया था, तो तिरपनवें श्लोक में उस प्रकरण के समाप्त होते ही उन्होंने अपने भ्रम निवारण के लिये भगवान् से पूछ क्यों नहीं लिया? बीच में इतना व्यवधान क्यों पड़ने दिया?

उत्तर- यह ठीक है कि अर्जुन को वहीं शंका हो गयी थी, इसलिये चौवनवें श्लोक में ही उन्हें इस विषय में पूछ लेना चाहिये था; किंतु तिरपनवें श्लोक में जब भगवान् ने यह कहा कि ‘जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूपी दलदल से तर जायगी और परमात्मा के स्वरूप में स्थिर हो जायगी तब तुम परमात्मा में संयोगरूप योग को प्राप्त होओगे’; तब उसे सुनकर अर्जुन के मन में परमात्मा को प्राप्त स्थिरबुद्धियुक्त पुरुष के लक्षण और आचरण जानने की प्रबल इच्छा जाग उठी। इसी कारण उन्होंने अपनी इस पहली शंका को मन में रखकर, पहले स्थितप्रज्ञ के विषय में प्रश्न कर दिये और उनका उत्तर मिलते ही इस शंका को भगवान् के सामने रख दिया। यदि वे पहले इस प्रसंग को छेड़ देते तो स्थितप्रज्ञसम्बन्धी बातों में इससे भी अधिक व्यवधान पड़ जाता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2। 49
  2. 2। 50
  3. 2।47
  4. 2। 48
  5. 2। 45
  6. 2। 18
  7. 2। 38
  8. 2। 50

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श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अध्याय
1 प्रथम अध्याय का नाम और संक्षेप 1
2 प्रथम अध्याय का सम्बन्ध- गीता के उपक्रम में महाभारत-युद्ध का प्रारम्भिक इतिहास 2
3 धृतराष्ट्र का प्रश्न 4
4 धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र का परिचय तथा दुर्योधन का द्रोणाचार्य के पास जाना 5
5 दुर्योधन द्वारा पाण्डव सेना का वर्णन 6
6 युयुधान, विराट और द्रुपद का परिचय 7
7 धृष्टकेतु, चेकितान, काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज, शैब्य, युधामन्यु, अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों के परिचय 10
8 महारथी का लक्षण तथा द्रोण, भीष्म, कर्ण, कृप, अश्वत्थामा, विकर्ण और भूरिश्रवा आदि कौरवपक्षीय प्रमुख वीरों का परिचय 11
9 दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष के वीरों की प्रशंसा तथा भीष्म के द्वारा शंखनाद 15
10 अर्जुन के विशाल रथ, ध्वजा, हृशीकेश नाम, पाञ्चजन्य एवं देवदत्त शंख का एवं शिखण्डी का परिचय और उभय पक्ष के वीरों द्वारा की हुई शंख ध्वनि का वर्णन 17
11 अर्जुन के अनुरोध से भगवान का दोनों सेनाओं के बीच में रथ को ले जाना और अर्जुन का सबको देखना 24
12 दोनों ओर के स्वजनों को देखकर उनके मरण की आशंका से अर्जुन का शोकाकुल होना और कुलनाश, कुलधर्मनाश तथा वर्णसंकरता के विस्तार आदि दुष्परिणामों को बतलाते हुए धनुष-बाण छोड़कर बैठ जाना 30
13 अध्याय की समाप्ति पर पुष्पि का- तात्पर्य 49
दूसरा अध्याय
14 प्रथम अध्याय का नाम संक्षेप और सन्दर्भ 50
15 भगवान के द्वारा उत्साह दिलये जाने पर भी अर्जुन का युद्ध के लिये तैयार न होना और किंकर्तव्यविमूढ होकर भगवान से उचित शिक्षा देने की प्रार्थना करते हुए युद्ध न करने का निश्चय करके बैठ जाना 53
16 भगवान के द्वारा आत्मतत्त्व का निरूपण और सांख्ययोग की दृष्टि में अर्जुन को युद्ध के लिये प्रोत्साहन मिलना 64
17 क्षत्रिय धर्म के अनुसार धर्म-युद्ध की उपादेयता और आवश्यकता का वर्णन करके भगवान अर्जुन को युद्ध के लिये उत्साह दिलाना 90
18 सकाम कर्मों की हीनता और निष्काम कर्मों की श्रेष्ठता का वर्णन करते हुए अर्जुन को कर्मयोग के लिये उत्साहित करना 98
19 योग और योगी के विभिन्न अर्थों में प्रयोग 118
20 अर्जुन के पूछने पर भगवान के द्वारा स्थिर-बुद्धि पुरुषों के लक्षण, स्थिर-बुद्धिता के साधन और फल का निरूपण 123
तीसरा अध्याय
21 अध्याय का नाम संक्षेप और सम्बन्ध 154
22 अर्जुन के पूछने पर सांख्य और कर्मयोग दो निष्ठाओं का वर्णन करते हुए अर्जुन को कर्तव्य कर्म करने के लिये आदेश देना 156
23 यज्ञार्थ कर्म की विशेषता, यज्ञचक्र का वर्णन तथा कर्तव्यपालन पर जोर 169
24 ज्ञानी के लिये कर्म की कर्तव्यता न होने पर भी लोक-संग्राहार्थ ज्ञानवान और भगवान के लिये भी कर्म की आवश्यकता एवं अज्ञानी और ज्ञानी के लक्षण तथा राग-द्वेषरहित कर्म के लिये प्रेरण। राजा दिलीप, शिवि और प्रह्लाद का दृष्टान्त 182
25 अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भगवान का काम के स्वरूप, निवास स्थान आदि का वर्णन करते हुए उसे मारने के लिये अर्जुन को आज्ञा देना 217
चौथा अध्याय
26 अध्याय का नाम, संक्षेप और सम्बन्ध 231
27 भगवान के द्वारा कर्मयोग की प्राचीन परम्परा का दिग्दर्शन 233
28 अर्जुन के प्रश्न पर भगवान के द्वारा अवतार रहस्य का वर्णन, चारों वर्णों की सृष्टि ईश्वरकृत है, यह बतलाते हुए कर्म के रहस्य और महापुरुषों की महिमा का वर्णन 237
29 विविध प्रकार के यज्ञों का वर्णन 268
30 ज्ञान की महिमा 292
पाँचवा अध्याय
31 अध्याय का नाम, संक्षेप सम्बंध 312
32 अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भगवान के द्वारा सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय, सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण तथा महत्त्व का वर्णन 313
33 सांख्ययोग और सांखयोगी स्थिति का निरूपण 331
34 दोनों निष्ठाओं के साधकों के लिये ध्यानयोग का वर्णन तथा भगवान को यज्ञादि का भोक्ता, सर्वलोकमहेश्वर तथा सुहृद जान लेने पर परमशान्ति की प्राप्ति का वर्णन 360
छठा अध्याय
35 अध्याय का नाम, संक्षेप और सम्बंध 369
36 कर्मयोगी की प्रशंसा और योगारूढ पुरुष का लक्षण बतलाते हुए आत्मोद्धार के लिये प्रेरणा तथा भगवत्प्राप्त पुरुषों के लक्षण 371
37 ध्यानयोग का फलसहित वर्णन 386
38 अर्जुन द्वारा किये गये प्रश्नों के उत्तर में मन के निग्रह और योगभ्रष्ट पुरुषों की गति का वर्णन 432
39 योगी की महिमा, योगी बनने के लिये आज्ञा और अन्तरात्मा से भगवान को भजने वाले योगी की सर्वश्रेष्ठता 455
सातवाँ अध्याय
40 षट्क का स्पष्टीकरण, अध्याय का नाम, संक्षेप और सम्बन्ध 462
41 विज्ञान सहित ज्ञान की प्रशंसा, भगवत्स्वरूप के तत्त्वज्ञान की दुर्लभता, भगवान की अपरा एवं परा प्रकृति का स्वरूप तथा उनसे समस्त भूतों की उत्पत्ति, भगवान की सबके प्रति महकारणता एवं भगवान के समग्र स्वरूप का वर्णन 464
42 आसुरी स्वभाव के मनुष्यों की निन्दा, भगवान के सब प्रकार के भक्तों की प्रशंसा तथा अन्य देवों की उपासना का वर्णन 482
43 भगवान के प्रभाव को न समझने का कारण और समग्ररूप को समझने वाले पुरुषों की प्रशंसा 500
आठवाँ अध्याय
44 अध्याय का नाम, संक्षेप और सम्बंध 513
45 अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भगवान के द्वारा ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के स्वरूप तथा अन्तकाल की गति का महत्त्वयुक्त निरूपण 514
46 सगुण-निराकार स्वरूप का चिन्तन करने वाले योगियों की निर्गुण-निराकार ब्रह्म के उपासकों की अन्तकालीन गति का वर्णन 529
47 भगवान की भक्ति का महत्त्व, कल्पवर्णन तथा सभी उपासकों को प्राप्त होने वाले परमधाम का भक्तिरूपी उपायसहित वर्णन 541
48 शुक्ल और कृष्ण मार्ग का वर्णन 555
नवाँ अध्याय
49 अध्याय का नाम, संक्षेप तथा सम्बन्ध 571
50 विज्ञानयुक्त ज्ञान भगवान के ऐश्वर्य का प्रभाव और जगत की उत्पत्ति का वर्णन 572
51 भगवान के प्रभाव को न जानने के कारण उनका तिरस्कार करने वालों की निन्दा, भक्ति की महिमा, प्रभावसहित समग्ररूप का वर्णन और स्वर्गकामी पुरुषों की गति का निरूपण 588
52 अनन्य भक्ति की महिमा 611
दसवाँ अध्याय
53 अध्याय का नाम, संक्षेप और सम्बन्ध 656
54 भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल 657
55 फल और प्रभावसहित भक्ति का कथन 669
56 अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति, विभूति तथा योगशक्ति का वर्णन करने के लिये प्रार्थना 675
57 भगवान के द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन 684
ग्यारहवाँ अध्याय
58 अध्याय का नाम, संक्षेप और सम्बन्ध 710
59 विश्वरूप का दर्शन कराने के लिये अर्जुन की प्रार्थना 711
60 भगवान के द्वारा विश्वरूप का वर्णन और दिव्यदृष्टि प्रदान 717
61 संजय द्वारा भगवान के विश्वरूप का वर्णन 723
62 अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का दर्शन और स्तवन 729
63 भगवान के द्वारा अपने प्रभाव का वर्णन और अर्जुन को युद्ध के लिये उत्साह प्रदान 748
64 अर्जुन के द्वारा भगवान का स्तवन और चतुर्भुज दिखलाने के लिये अर्जुन की प्रार्थना 754
65 भगवान के द्वारा विश्वरूप की महिमा का कथन एवं चतुर्भुज तथा सौम्यरूप के दर्शन करवाना 772
66 भगवान के द्वारा चतुर्भुजरूप की महिमा और अनन्यभक्ति का निरूपण 776
बारहवाँ अध्याय
67 अध्याय का नाम, संक्षेप और सम्बन्ध 784
68 अर्जुन के प्रश्न करने पर भगवान के द्वारा साकार और निराकार स्वरूप के उपासकों की उत्तमता का निर्णय तथा भगवत्प्राप्ति के विविध साधनों का वर्णन 785
69 भगवत्प्राप्त भक्त पुरुषों के लक्षण 806
70 उच्च श्रेणी के भगवद्भक्त साधकों का वर्णन 821
तेरहवाँ अध्याय
71 अध्याय का नाम, संक्षेप और सम्बन्ध 823
72 क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान-ज्ञेय का निरूपण 824
73 ज्ञान सहित प्रकृति-पुरुष का वर्णन 853
चौदहवाँ अध्याय
74 अध्याय का नाम, संक्षेप और सम्बन्ध 881
75 ज्ञान का महत्त्व और प्रकृति पुरुष के द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन 882
76 सत्त्व, रज, तम- तीनों गुणों का विविध प्रकार से वर्णन 885
77 गुणातीत-अवस्था की प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुष के लक्षणों और भगवान की महत्ता का वर्णन 903
पन्द्रहवाँ अध्याय
78 अध्याय का नाम, संक्षेप और सम्बन्ध 919
79 संसार -वृक्ष का वर्णन, भगवत्प्राप्ति के साधन और परमधाम का निरूपण 920
80 जीवत्मा का प्रकरण 929
81 भगवान प्रभाव एवं स्वरूप का प्रकरन तथा क्षर, अक्षर एवं पुरुषोत्तम का निरूपण 939
सोलहवाँ अध्याय
82 अध्याय का नाम, संक्षेप और सम्बन्ध 950
83 फल सहित दैवी और आसुरी सम्पत्ति का वर्णन 951
84 आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों के लक्षण और उनकी अधोगति का निरूपण 959
85 काम, क्रोध और लोभ नरक-द्वारों के त्याग की आज्ञा के साथ-साथ शास्त्रानुकुल कर्म करने के लिये प्रेरणा 975
सतरहवाँ अध्याय
86 अध्याय का नाम संक्षेप और सम्बन्ध 980
87 श्रद्धा और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन 981
88 तीनों गुणों के अनुसार, आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेदों का वर्णन 988
89 ॐ तत्सत् के प्रयोग की व्याख्या 1010
अठारहवाँ अध्याय
90 अध्याय का नाम संक्षेप और सम्बन्ध 1016
91 अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भगवान के द्वारा त्याग के स्वरूप का निर्णय 1018
92 सांख्य-सिद्धान्त के अनुसार कर्मों के हेतुओं का निरूपण 1032
93 तीनों के गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के पृथक-पृथक भेदों का वर्णन 1041
94 फलसहित वर्णधर्म का निरूपण 1070
95 ज्ञान-निष्ठा का निरूपण 1084
96 भक्तिसहित कर्मयोग का वर्णन और शरणागति की महिमा तथा अर्जुन अपनी शरण में आने के लिये महिमा तथा अर्जुन को अपनी शरण में आने के लिये भगवान का आदेश 1094
97 गीता का माहात्मय 1114

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