श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
श्रीभगवानुवाच
उत्तर- गुणवानों के गुणों को न मानना, गुणों में दोष देखना, उनकी निन्दा करना एवं उन पर मिथ्या दोषों का आरोपण करना ‘असूया’ है। जिसमें स्वभाव से ही यह ‘असूया’ दोष बिलकुल ही नहीं होता, उसे ‘अनसूयु’ कहते हैं।[1] यहाँ भगवान् ने अर्जुन को ‘अनसूयु’ कहकर यह भाव दिखलाया है कि जो मुझमें श्रद्धा रखता है और असूयादोष से रहित है, वही इस अध्याय में दिये हुए उपदेश का अधिकारी है। इसके विपरीत मुझमें दोषदृष्टि रखने वाला अश्रद्धालु मनुष्य इस उपदेश का पात्र नहीं है। अठारहवें अध्याय के सड़सठवें श्लोक में भगवान् ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि ‘जो मुझमें दोषदृष्टि करता है, उसे गीताशास्त्र का उपदेश नहीं सुनाना चाहिये।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ न गुणान् गुणिनो हन्ति स्तौति मन्दगुणानपि। नान्यदोषेषु रमते सानसूया प्रकीर्तिता।। (अत्रिस्मृति 34) जो गुणवानों के गुणों का खण्डन नहीं करता, थोड़े गुण वालों की प्रशंसा करता है और दूसरे के दोषों में प्रीति नहीं करता, उस मनुष्य का वह भाव अनसूया कहलाता है।
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