चतुर्थ अध्याय
प्रश्न- ‘यज्ञाय आचरतः’ इस पद में ‘यज्ञ’ शब्द किसका वाचक है? और उसके लिये कर्मों का आचरण करना क्या है?
उत्तर- अपने वर्ण, आश्रम और परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्य का जो शास्त्र-दृष्टि से विहित कर्तव्य है, वही उसके लिये यज्ञ है। उस शास्त्र विहित यज्ञ का सम्पादन करने के उद्देश्य से ही जो कर्मों का करना है- अर्थात् किसी प्रकार के स्वार्थ का सम्बन्ध न रखकर केवल लोकसंग्रहरूप यज्ञ की परम्परा सुरक्षित रखने के लिये ही जो कर्मों का आचरण करना है, वही यज्ञ के लिये कर्मों का आचरण करना है। तीसरे अध्याय के नवें श्लोक में आया हुआ ‘यज्ञार्थात्’ विशेषण के सहित ‘कर्मणः’ पद भी ऐसे ही कर्मों का वाचक है।
प्रश्न- ‘समग्रम्’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद यहाँ किन कर्मों का वाचक है और उनका विलीन हो जाना क्या है?
उत्तर- इस जन्म और जन्मान्तर में किये हुए जितने भी कर्म संस्कार रूप से मनुष्य के अन्तःकरण में संचित रहते हैं और जो उसके द्वारा उपर्युक्त प्रकार से नवीन कर्म किये जाते हैं, उन सबका वाचक यहाँ ‘समग्रम्’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद है; उन सबका अभाव हो जाना अर्थात् उनमें किसी प्रकार का बन्धन करने की शक्ति का न रहना ही उनका विलीन हो जाना है। इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि उपर्युक्त प्रकार से कर्म करने वाले पुरुष के कर्म उसको बाँधने वाले नहीं होते, इतना ही नहीं; किंतु जैसे किसी घास की ढेरी में आग में जलाकर गिराया हुआ घास की ढेरी को भी भस्म कर देता है- वैसे ही आसक्ति, फलेच्छा, ममता और अभिमान के त्यागरूप अग्नि में जलाकर किये हुए कर्म पूर्वसंचित समस्त कर्मों के सहित विलीन हो जाते हैं, फिर उसके किसी भी कर्म में किसी प्रकार फल देने की शक्ति नहीं रहती।
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