श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
ब्रह्मार्पणं ब्रह्मा हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्माणा हुतम् ।
उत्तर- इस श्लोक में ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’[1] के अनुसार सर्वत्र ब्रह्मदर्शनरूप साधन को यज्ञ का रूप दिया गया है। अभिप्राय यह है कि कर्ता, कर्म और करण आदि के भेद से भिन्न–भिन्न रूप में प्रतीत होने वाले समस्त पदार्थों को ब्रह्मरूप से देखने का जो अभ्यास है - यह अभ्यासरूप कर्म भी परमात्मा की प्राप्ति का साधन होने के कारण यज्ञ ही है। इस यज्ञ में स्त्रुवा, हवि, हवन करने वाला और हवनरूप क्रियाएँ आदि भिन्न-भिन्न वस्तुएँ नहीं होतीं; उसकी दृष्टि में सब कुछ ब्रह्म ही होता है; क्योंकि ऐसा यज्ञ करने वाला योगी जिन मन, बुद्धि आदि के द्वारा समस्त जगत् को ब्रह्म समझने का अभ्यास करता है, वह उनको, अपने को, इस अभ्यासरूप क्रिया को या अन्य किसी भी वस्तु को ब्रह्म से भिन्न नहीं समझता, सबको ब्रह्मरूप ही देखता है; इसलिये उसकी उनमें किसी प्रकार की भी भेदबुद्धि नहीं रहती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ छान्दोग्य उ. 3/14/1
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