गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 4
सेना सहित यादव-वीरों की दिग्विजय के लिये यात्रा उग्रसेन बोले- हे महाप्राज्ञ प्रद्युम्न ! तुम श्रीकृष्ण की समस्त राजाओं पर विजय प्राप्त करके शीघ्र की द्वारका में लौट आओगे। इस बात को ध्यान में रखो कि धर्मज्ञ पुरुष मतवाले, असावधान, उन्मत, सोये हुए बालक, जड़, नारी, शरणागत, रथहीन और भयभीत शत्रु को नहीं मारते। संकट में पडे़ हुए प्राणियों की पीड़ा निवारण तथा कुमार्ग में चलने वालों का वध राजा के लिये परम धर्म है। इस प्रकार जो आततायी है (अर्थात् दूसरों को विष देने वाला, पराये घरों में आग लगाने वाला, क्षेत्र और नारी का अपहरण करने वाला है) वह अवश्य वध के योग्य है। स्त्री, पुरुष या नपुसंक कोई भी क्यों न हो, जो अपने-आपको ही महत्व देने वाले, अधम तथा समस्त प्राणियों के प्रति निर्दय हैं, ऐसे लोगों का वध करना राजाओं के लिये वध न करने के ही बराबर है। अर्थात् दुष्टों के वध से राजाओं को दोष नहीं लगता। धर्मयुद्ध में शत्रुओं का वध करना प्रजापालक राजा के लिये पाप नहीं है। आदिराजा स्वासम्भुव मनु ने पूर्वकाल में राजाओं से कहा था कि ‘जो रण में निर्भय होकर आगे पांव बढ़ाते हुए प्राण त्याग देता है, वह सूर्य-मण्डल का भेदन करके परमधाम में जाता है। जो योद्धा क्षत्रिय होकर भी भय के कारण युद्ध से पीठ दिखाकर रणभूमि में स्वामी को अकेला छोड़कर पलायन कर जाता है, वह महारौरव नरक में पड़ता है। राजा का कर्तव्य है कि वह सेना की रक्षा करे और सेना कर्तव्य है कि वह राजा की रक्षा करे। सूत को चाहिये कि वह संकट में पडे़ हुए रथी का प्राण बचाये और रथी सारथि की रक्षा करे। तुम समस्त यादव सामर्थ्यशाली सेना अैर वाहन से सम्पन्न हो; अत: तुम सब मिलकर प्रद्युम्न की ही रक्षा करना और प्रद्युम्न तुम लोगों की रक्षा करें। गौ, ब्राह्मण, देवता, धर्म, वेद और साधु पुरुष इस भूतल पर मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले सभी मनुष्यों के लिये सदा पूजनीय है। वेद भगवान विष्णु की वाणी हैं, ब्राह्मण उनका मुख हैं, गौऍं श्रीहरि का शरीर हैं, देवता अंग हैं और साधुपुरुष साक्षात उनके प्राण माने गये हैं। ये साक्षात परिपूर्ण तक भगवान श्रीकृष्ण हरि भक्ति के वशीभूत हो जिनके चित में निवास करते हैं, उन वीरों की सदा विजय होती है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गावो विप्रा: स्त्रुरा धर्मश्छन्दांसि भुवि साधव:। पूजनीया: सदा सर्वैर्मनुष्यैर्मोक्षकांक्षिभं: ।। वेदा विष्णुवचो विप्रा मुखं गावस्तुनुर्हरे:। अंगानि देवता: साक्षात् साधवो ह्यसव: स्मृता ।। श्रीकृष्णोऽयं हरि: साक्षात् परिपूर्णतम: प्रभु:। येषा: चित्ते स्थितो भक्त्या तेषां तु विजय: सदा ।। गर्ग0 विश्व0 4। 11-13
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