गर्ग संहिता
माधुर्य खण्ड : अध्याय 1
अतसीकुसुमोपमेयकान्तिर्यमुनाकूलकदम्बमूलवर्ती। 'जिनकी अंगकांति को अलसी के फूल की उपमा दी जाती है, जो यमुनाकूलवर्ती कदम्ब वृक्ष के मूल भाग में विद्यमान हैं तथा नूतन गोपांगनाओं के साथ लीला-विलास करते हुए अत्यंत शोभा पा रहे हैं, वे वनमाली श्रीकृष्ण मंगल का विस्तार करें'। परिकरीकृपीतपटं हरिं शिखिकिरीटनतीकृतकन्धरम्। 'जिन्होनें पीताम्बर की फेंट बाँध रखी है, जिनके मस्तक पर मोरपंख का मुकुट सुशोभित है और गर्दन एक ओर झुकी हुई है जो लकुटी और वंशी हाथ में लिये हुए हैं और जिनके कानों में चंचल कुण्डल झलमला रहे है, उन परम पटु, नटवेषधारी श्रीकृष्ण का मैं भजन (ध्यान) करता हूँ'। बहुलाश्व ने पूछा- मुने ! श्रुतिरूपा आदि गोपियों ने, जो पूर्वप्रदत्तवर के अनुसार पहले ही व्रज में प्रकट हो चुकी थीं, किस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र का साहचर्य पाकर अपना मनोरथ पूर्ण किया था ? महाबुद्धे ! गोपाल श्रीकृष्णचन्द्र का चरित्र परम अदभुत है, इसे कहिये, क्योंकि आप परापरवेत्ताओं में सबसे श्रेष्ठ हैं। श्रीनारदजी ने कहा - विदेहराज ! श्रुतिरूपा जो गोपियाँ थीं, वे शेषशायी भगवान विष्णु के पूर्वकथित वर से व्रजवासी गोपों के उत्तम कुल में उत्पन्न हुई। उन सबने वृन्दावन में परम कमनीय नन्दनन्दन का दर्शन करके उन्हें वररूप में पाने की इच्छा से वृन्दावनेश्वरी वृन्दादेवी की समाराधना की। वृन्दा के दिये हुए वर से भक्त वत्सल भगवान श्रीहरि उनके ऊपर शीघ्र प्रसन्न हो गये और प्रतिदिन उनके घरों में रासक्रीड़ा के लिये जाने लगे। नरेश्वर ! एक दिन रात में दो पहर बीत जाने पर भगवान श्रीकृष्ण रास के लिये उनके घर गये। उस समय उत्कण्ठित गोपियों ने उन परम प्रभु का अत्यन्त भक्ति-भाव से पूजन करके मधुर वाणी में पूछा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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