गर्ग संहिता
श्रीविज्ञान खण्ड : अध्याय 1
द्वारका में वेदव्यासजी का आगमन और उग्रसेन द्वारा उनका स्वागत-पूजन राजा बहुलाश्व ने कहा- मुने ! भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के उस भक्ति मार्ग, जो सर्वश्रेष्ठ है तथा जिसके प्रभाव से मैं भी भक्त बन जाऊँ, वर्णन कीजिये। नारदजी बोले- राजन् ! वेदव्यासजी के मुख से सुने हुए भक्तिमार्ग का मैं वर्णन करता हूँ। यह वह मार्ग है, जिस पर चलेन से भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं। जनकजी ! अपने भुजदण्डों के बल से उद्धत इन्द्र पर विजय प्राप्त करके भगवान श्रीकृष्ण ने द्वार का में सुधर्मा नाम की दिव्य सभा की प्रतिष्ठा की थी। राजन् विश्वकर्मा के द्वारा रचे गये वैदुर्यमणि के खंभों की करोड़ों पंक्तियाँ उसके मण्डप की शोभा बढ़ाती थीं। वहाँ की भूमि पहराग-मणि से जड़ी गयी थी। उस पर मूंगे की दीवालों से कई विभाग बने थे, जिन पर रंग बिरंगें चँदोवे शोभा दे रहे थे, और मोतियों की झालरें लटकायी हुई थीं। उसकी दीवालें सिंहासन के आकार की थीं। उन पर काले मेघ में कौंधने वाली बिजली का सा प्रकाश फैलाने वाले जाम्बूनद सुवर्ण के करोड़ों चमचमाते हुए कलश सुशोभित थे। वहाँ प्रात:कालीन सूर्य की भाँति चमकने वाले रत्नमय केयूर, करधनी, कंकड और नूपुरों से सैकड़ों चन्द्रमाओं की प्रभा को छिटकाने वाली गन्धर्वों की स्त्रियां हर्ष में भरकर गान किया करती थीं और सुमधुर वाद्यों के साथ विद्याधरियां परस्पर लाग-डांट रखती हुई नृत्य करती थीं। उसके चारों कोनों में मनोहर देववृक्षों सहित नन्दन, सर्वतोभद्र, ध्रौव्य एवं चैत्र रथ नामक वन सुशोभित थे। महाराज ! उस सभाप्रदेश के अन्तर्गत स्वच्छ जलवाले लाखों सरोवर तथा भ्रमरों से भरपूर बहुत-से हजार दल वाले कमल दिखायी पड़ते थे। इस प्रकार की वह सुधर्मा सभा ध्वजा एवं पताकाओं से अलंकृत तथा दस योजन के विस्तार वाली थी। पांच योजन की उसकी ऊंचाई थी। उसमें गया हुआ पुरुष अपने को सर्वश्रेष्ठ समझता है। जिसे वहाँ का सिंहासन उपलब्ध हो जाता, वह तो ‘मैं इन्द्र हूँ’– यों कल्पना करने लगता है। त्रिलोकी में जितने चातुर्य गुण हैं, वे सभी उस पुरुष के शरीर में आकर रहने लगते हैं। वहाँ जितनी देर मनुष्य ठहरता है, उतनी देर तक शोक-मोह, जरा मृत्यु तथा भूख-प्यास- ये छ: प्रकार की ऊर्मियां (विकार) उसके पास नहीं फटकतीं। महाराज ! जितने मनुष्य वहाँ प्रवेश करते हैं, उतनी ही बड़ी वह सभा अपने प्रभाव से दिखायी देने लगती है। जनकजी ! यादवों की संख्या छप्पन करोड़ थी। अनुचरों सहित वे सभी उक्त सभा भवन के आंगन के एक चौथाई भाग में समाये हुए दीख पड़ते थे। महाराज ! जहाँ साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ही विराजमान रहते थे, उस सभा का वर्णन कौन कर सकता है। उस सभा में एक दिन महाराज उग्रसेन विराजमान थे। करोड़ों यादव उन्हें घेरे हुए थे। सूत, मागध और वन्दियों द्वारा महाराज का यशोगान हो रहा था। साक्षात पराशकुमार मुनिवर वेदव्यास जी आकाश मार्ग से वहाँ पधारे। उनके शरीर की कान्ति मेघ के समान श्यामल थी और वे बिजली के समान पीली जटा धारण किये हुए थे। उन्हें देखकर यदुराज तुरंत उठ खड़े हुए और उन्होंने हाथ जोड़कर मुनि को प्रणाम किया। फिर उन्हें आसन पर बिठाकर तथा पूजा के उपचार समर्पित कर वे मुनि के सामने खड़े हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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