गर्ग संहिता
गिरिराजखण्ड : अध्याय 11
सिद्ध के द्वारा अपने पूर्वजन्म के वृत्तान्त का वर्णन तथा गोलोक से उतरे हुए विशाल रथ पर आरूढ़ हो उसका श्रीकृष्ण-लोक में गमन श्रीनारदजी कहते हैं– राजन ! सिद्ध की यह बात सुनकर ब्राह्मण को बड़ा विस्मय हुआ। गिरिराज के प्रभाव को जानकर उसने सिद्ध ने पुन: प्रश्न किया। ब्राह्मण ने पूछा– महाभाग ! इस समय तो तुम साक्षात दिव्यरूपधारी दिखायी देते हो। परंतु पूर्वजन्म में तुम कौन थे और तुमने कौन-सा पाप किया था ? सिद्ध ने कहा– पूर्वजन्म में एक धनी वैश्य था। अत्यंत समृद्ध वैश्य–बालक होने के कारण मुझे बचपन से ही जुआ खेलने की आदत पड़ गयी थी। धूर्तों ओर जुआरियों की गोष्ठी में मैं सबसे चतुर समझा जाता था। आगे चलकर मैं वेश्या में आसक्त हो गया, कुपथ पर चलने और मदिरा के मद से उन्मत्त रहने लगा। ब्रह्मन ! इसके कारण मुझे अपने माता-पिता और पत्नी की ओर से बड़ी फटकार मिलने लगी। एक दिन मैंने माँ बाप को तो जहर देकर मार डाला और पत्नी को साथ लेकर कहीं जाने के बहाने निकला और रास्ते में मैंने तलवार से उसकी हत्या कर दी। इस तरह उन सबके धन को हथियार मैं उस वेश्या के साथ दक्षिण जाकर मैं अत्यंत निर्दयतापूर्वक लूट-पाट का काम करने लगा। एक दिन उस वेश्या को भी मैंने अँधेर कुएँ में डाल दिया। डाकू तो मैं हो ही गया था, मैंने फाँसी लगाकर सैकड़ों मनुष्यों को मौत के घाट उतार दिया। विप्रवर ! धन के लोभ से मैंने सैकड़ों ब्रह्महत्याएं कीं। क्षत्रिय-हत्या, वैश्य-हत्या और शूद्र-हत्या की संख्या तो हजारों तक पहुँच गयी होगी। एक दिन की बात है कि मैं मांस लाने के निमित मृगों का वध करने के लिये वन में गया। वहाँ एक सर्प के ऊपर मेरा पैर पड़ गया और उसने मुझे डंस लिया। फिर तो तत्काल मेरी मृत्यु हो गयी और यमराज के भयंकर दूतों ने आकर मुझ दुष्ट ओर महापात की को भयानक मुद्गगुरों से पीट-पीटकर बाँधा और नरक में पहुँचा दिया। मुझे महादुष्ट मानकर ‘कुम्भीपाक’ में डाला गया और वहाँ एक मन्वन्तर तक रहना पड़ा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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