गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 13
मुनिवर वेदशिरा और अश्वशिरा का परस्पर के शाप से क्रमश: कालियनाग और काकभुशुण्ड होना तथा शेषनाग का भूमण्डल को धारण करना विदेहराज बहुलाश्व ने पूछा- देवर्षे ! संसार में जिनकी धूलि अनेक जन्मों में योगियों के लिये भी दुर्लभ है, भगवान के साक्षात वे ही चरणाविन्द कालिय के मस्तकों पर सुशोभित हुए। नागों में श्रेष्ठ यह कालिय पूर्वजन्म में कौन-सा पुण्य-कर्म कर चुका था, जिससे इसको यह सौभाग्य प्राप्त हुआ- यह मैं जानना चाहता हूँ। देवर्षि शिरोमणे ! यह बात मुझे बताइये । नारद जी ने कहा-राजन! पूर्वकाल की बात है। स्वायम्भुव मन्वन्तर में वेदशिरा नामक मुनि, जिनकी उत्पत्ति भृगु वंश में हुई थी, विन्ध्य पर्वत पर तपस्या करते थे। उन्हीं के आश्रम पर तपस्या करने के लिये अश्वशिरा मुनि आये। उन्हें देखकर वेदशिरा मुनि के नेत्र क्रोध से लाल हो गये और वे रोष पूर्वक बोले। वेदशिरा ने कहा- ब्रह्मन ! मेरे आश्रम में तुम तपस्या न करो; क्योंकि वह सुखद नहीं होगी। तपोधन! क्या और कहीं तुम्हारे तप के योग्य भूमि नहीं है ? नारद जी कहते हैं- राजन ! वेदशिरा की यह बात सुनकर अश्वसिरा मुनि के भी नेत्र क्रोध से लाल हो गरये औ वे मुनिपुंगव से बोले। अश्वशिरा ने कहा- मुनिश्रेष्ठ ! यह भूमि तो महाविष्णु की है; न तुम्हारी है न मेरी। यहाँ कितने मुनियों ने उत्तम तप का अनुष्ठान नहीं किया है ? तुम व्यर्थ ही सर्प की तरह फुफकारते हुए क्रोध प्रकट करते हो, इसलिये सदा के लिये सर्प हो जाओ और तुम्हें गरूड़ से भय प्राप्त हो । वेदशिरा बोले-दुर्मते! तुम्हारा भाव बड़ा ही दूषित है। तुम छोटे-से द्रोह या अपराध पर भी महान दण्ड देने के लिये उद्यत रहते हो और अपना काम बनाने के लिये कौए की तरह इस पृथ्वी पर डोलते-फिरते हो; अत: तुम भी कौआ हो जाओ । नारद जी कहते हैं-इसी समय भगवान विष्णु परस्पर शाप देते हुए दोनों ऋषियों के बीच प्रकट हो गये। वे दोनों अपने-अपने शाप से दु:खी थे। भगवान ने अपनी वाणी द्वारा उन दोनों को सान्त्वना दी । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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