गर्ग संहिता
श्रीविज्ञान खण्ड : अध्याय 10
परमात्मा का स्वरूप-निरूपण राजा उग्रसेन ने कहा- आप भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप हैं। आपने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की। आपके श्रीमुख से साक्षात भगवान श्रीकृष्ण की पूजा पद्धति विस्तारपूर्वक मैंने सुन ली। इससे मैं सफल जीवन हो गया। अहो। प्राणियों में बड़ी मूर्खता भरी हुई है। वे लोभ, मोह और मद के कारण मतवाले हो गये हैं। इसी से उन्हें विराग उत्पन्न नहीं होता और न कभी वे भगवान का भजन ही करते हैं। भगवन् ! जगत की यह मोहि का शक्ति बड़ी अद्भुत है। प्रभो ! यह मोह कैसे उत्पन्न हुआ और किस प्रकार इसकी निवृति होगी, यह बताने की कृपा कीजिये। श्री व्यासजी बोले- जिस प्रकार जल में कई चन्द्रमा दिखायी पड़ते हैं, जल के चंचल वेग से वे दृष्टिगोचर होते हैं, किंतु वास्तव में हैं कुछ नहीं, बिलकुल प्रतिबिम्ब मात्र हैं, ठीक वैसे ही परम प्रभु की प्रतिबिम्बरुपी यह माया फैली हुई है। उसी के प्रभाव से ‘मेरा और मैं’ का भाव उत्पन्न हो जाने पर संसार कायम हो जाता है। माया, काल, अन्त:करण और देह से गुणों की उत्पत्ति होती है। मनुष्य इनके द्वारा विपरीत कर्म करता हुआ बन्धन में पड़ जाता है। इन्द्रियों का ही यह प्रभाव है कि दर्पण में बालक, बालू में जल और रस्सी में साँप का भान होने लगता है। राजन् ! यह जगत मोहमय है। इसमें रजोगुण और तमोगुण कूट कूटकर भरे हैं। कभी-कभी सत्त्वगुण का भी प्रादुर्भाव होता है। यह मन का विलास है, विकार मात्र है और भ्रमरूप है। अलात चक्र के समान यह शीघ्रतापूर्वक परिवर्तित होता रहता है- इस प्रकार जानो। ‘मैंने यह कर दिया, यह करता हूँ और यह करुंगा; यह मेरा है, यह तेरा है; मैं सुखी हूं, मैं दु:ख में पड़ गया; लोग मुझसे बिना कारण प्रेम करने वाले हैं’- इस प्रकार मनुष्य कहता रहता है। मेरा तो यह मत है कि मनुष्य अहंकार के कारण सुध-बुध खो बैठा है। राजा उग्रसेन ने पूछा- ब्रह्मन् ! कृपापूर्वक मुझ से परमात्मा के लक्षणों का वर्णन कीजिये। साथ ही यह भी बताइये कि विद्वानों ने पूजा-पद्धति में भगवान श्रीकृष्ण के लक्षण कितने प्रकार के बतलाये हैं। श्रीव्यासजी बोले- सनातन प्रभु जन्म और मरण से रहित हैं। शोक और मोह उनके पास भी नहीं फटकते। युवावस्था तथा बुढ़ापा आदि का कोई भेद उनमें नहीं है। अहंकार-मद, दुख-सुख, भय, रोग, क्षुधा, पिपासा, कामना, रति और मानसिक व्याधि इनके वे अविषय हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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