गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 17
सिद्धाश्रम में राधा और श्रीकृष्ण का मिलन; श्रीकृष्ण की रानियों का श्रीराधा को अपने शिविर में बुलाकर उनका सत्कार करना तथा श्रीहरि द्वारा उनकी उत्कृष्ट प्रीति का प्रकाशन श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! पटरानियों सहित श्रीकृष्ण को आया देख गोपांगनाएं अत्यन्त हर्ष से खिल उठीं और हाथ जोड़, श्रीहरि की परिक्रमा करके अपने कमलोपम नेत्रों से आनन्द के आंसू बहाने लगीं। उन्होंने श्रीकृष्ण के बैठने के लिये एक सोन का सिंहासन दिया, जिसके पायों में स्यमन्तकमणि जड़ी हुई थी। पार्श्वभाग में चिन्तामणि जगमगा रही थी, मध्यभाग में पद्मरागमणि शोभा दे रही थी। वह सिंहासन चन्द्रमण्डल के समान गोलाकार था। उसकी पादपीठिका में कौस्तुभ-मणियां जड़ी गयी थी। वह सिंहासन कुण्डमण्डल से मण्डित था; पारिजात के पुष्पों से सज्जित और अमृतवर्षी छत्र से अलंकृत था। उन्हें सिंहासन देकर श्रीराधा हासयुक्त मुख से बोलीं- ‘आज मेरा जन्म सफल हो गया आज मेरी तपस्या का फल मिल गया। श्रीहरे ! तुम आ गये तो आज मेरा धर्म-कर्म सफल हो गया। श्रीसिद्धाश्रम का स्नान धन्य है, जिसमें मेरा मनोरथ अद्भुत रीति से सफल हुआ। मैंने तो कभी तुम्हारी भक्ति भी नहीं की। तुम भक्तों के सहायक हो। देव ! तुमने मेरी सहायता के लिये इस भूतल पर बहुत से असुर के को मार भगाया। जिससे त्रिलोकविजय कंस भी डरता था, उस शंकचूड़ को तुमने मेरे कहने से मार गिराया। हरे ! मेरे प्रति प्रेम रखने के कारण ही तुमने व्रजमण्डल में देवलोक का वैभव दिखाया। देव ! तुमने बलपूर्वक इन्द्र का मान भंग किया और मेरे ही कारण व्रज की रक्षा करते हुए गोवर्धन पर्वत को धारण किया। रासमण्डल में गोपियों ने तुम्हारा यथेष्ट आलिंगन किया और तुम उनके वश में हो गये। तुम्हारा यह चरित्र नरलोक की विडम्बनामात्र है’। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहती हुई श्रीराधा ने चन्द्रानना की प्रेरणा से तुरंत श्रीकृष्ण की रानियों पर दृष्टिपात किया और बड़े आदर के साथ उन सबको सम्मान दिया। रुक्मिणी, जाम्बवती, सत्यभामा, सत्या, भद्रा, लक्ष्मणा, कालिन्दी और मित्रविन्दा से परस्पर गले मिलकर, रोहिणी आदि सोलह हजार रानियों को भी प्रेमानन्दमयी श्रीराधा ने दोनों भुजाओं से पकड़कर सानन्द हृदय से लगाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |