गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 19
दामोदर कृष्ण, का उलूखल- बन्धन तथा उनके द्वारा यमलार्जुन वृक्षों का उद्धार श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! एक समय गोपांगनाएं घर-घर में गोपाल की लीलाएं गाती हुई गोकुल में सब ओर दधि मन्थन कर रही थीं। श्रीनन्द मंदिर में सुन्दरी यशोदाजी भी प्रात:काल उठकर दही के भाण्डो में रई डालकर उसे मथने लगीं। मथानी की आवाज सुनकर बालक श्रीनन्दनन्दन भी नवनीत के लिए कौतुहलवश मञ्जीर की मधुर ध्वेनि प्रकट करते हुए नाचने लगे। माता के पास बाल क्रीडापरायण श्रीकृष्ण बार-बार चक्कर लगाते और नाचते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे और बजती हुई करधनी के घुघुरूओं की मधुर झंकार बारंबार फैला रह थे। वे माता से मीठे वचन बोलकर ताजा निकाला हुआ माखन माँग रहे थे। जब वह उन्हें नहीं मिला, तब वे कुपित हो उठे और एक पत्थर का टुकड़ा लेकर उसके द्वारा दही मथने का पात्र फोड़ दिया। ऐसा करके वे भाग चले। यशोदाजी भी अपने पुत्र को पकड़ने के लिए पीछे-पीछे दौड़ीं। वे उनसे एक ही हाथ आगे थे, किन्तुे वे उन्हें पकड़ नहीं पाती थीं। जो योगीश्वीरों के लिए भी दुर्लभ हैं, वे माता की पकड़ में कैसे आ सकते थे। नृपेश्वर ! तथापि श्रीहरिने भक्तों के प्रति अपनी भक्तवश्यता दिखायी, इसलिए वे जान-बूझकर माता के हाथ आ गये। अपने बालक-पुत्र को पकड़कर यशोदा ने रोषपूर्वक ऊखल में बाँधना आरंभ किया। वे जो-जो बड़ी से बड़ी रस्सी उठातीं, वही-वही उनके पुत्र के लिए कुछ छोटी पड़ जाती थी। जो प्रकृति के तीनों गुणों से न बँध सके, वे प्रकृति से परे विद्यमान परमात्मा यशोदा यहाँ के गुण से (रस्सी से) कैसे बंध सकते थे ? जब यशोदा बांधते-बांधते थक गयीं और हतोत्साह होकर बैठ रहीं तथा बाँधने की इच्छा भी छोड़ बैठीं, तब ये स्वच्छन्द गति भगवान श्रीकृष्ण स्ववश होते हुए भी कृपा करके माता के बन्धन में आ गये। भगवान की ऐसी कृपा कर्मत्यागी ज्ञानियों को भी नहीं मिल सकी, फिर जो कर्म में आसक्त है, उनको तो मिल ही कैसे सकती हैं। यह भक्ति का ही प्रताप है कि वे माता के बन्धन में आ गये। नरेश्वर! इसलिये भगवान् ज्ञान के साधक आराधकों को मुक्ति तो दे देते है, किन्तु भक्ति नहीं देते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |