गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 33
नारद जी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न की यह बात सुनकर, धैर्यवर्धक ज्ञान प्राप्त करके, हर्ष और उत्साह से भरे हुए समस्त यादव-श्रेष्ठ वीरों ने शस्त्र ग्रहण कर लिये। फिर तो सीता-गंगा के तट पर यादवों के साथ दैत्यों का तुमुल युद्ध हुआ-वैसे ही, जैसे समुद्र के तट पर वानरों के साथ राक्षसों का हुआ था। रथी रथियों से, पैदल पैदलों से, घुड़सवार घुड़सवारों से गजारोही गजाहियों से जूझने लगे। महावतों से प्रेरित हुए, हौदों से सुशोभित कुछ उन्मत्त गजराज मेघाडम्बर से युक्त गिरि राजों के समान दिखायी देते थे। राजन् ! वे समरांगण में रथियों, घुड़सवारों तथा पैदल वीरों को धराशायी करते हुए विचर रहे थे। वे घोड़ों और सारथियों सहित रथों को सूंड़ में लपेट कर भूमि पर पटक देते और बलपूर्वक पुन: उठाकर आकाश में फेंक देते थे। राजन् ! उस युद्धभूमि में सब ओर दौड़ते हुए क्षत-विक्षत गजराज कुछ लोगों को सुदृढ़ द्वारा विदीर्ण करके उन्हें पैरों से मसल देते थे। महाराज ! घुड़सवारों द्वारा प्रेरित पंखयुक्त घोड़े रथों को लांघकर हाथियों के कुम्भस्थल पर चढ़ जाते थे। कुछ महावीर घुड़सवार युद्ध के मद से उन्मत्त हो, हाथ में शक्ति लिये घोड़ों के द्वारा हाथियों के कुम्भस्थल पर पहुँचकर गजारोही नरेशों को उसी प्रकार मार डालते थे, जैसे सिंह यूथपति गजराजों को मार गिराते हैं। कुछ घुड़सवार योद्धा तलवारों के वेग से सामने की सेना को विदीर्ण करते हुए उसी प्रकार सकुशल आगे निकल जाते थे, जैसे वायु अपने वेग से लीलापूर्वक कमल वन को रौंदकर आगे बढ़ जाती है। कुछ घुड़सवार समरांगण में उछलते हुए खड्गों द्वारा उसी प्रकार आपस में ही आघात प्रत्यघात करने लगते थे, जैसे आकाश में पक्षी किसी मांस के टुकड़े के लिये एक दूसरे को चोंच से मारने लगते हैं। कुछ पैदल योद्धा खड्गों से, कुछ फरसों और चक्रों से तथा कुछ योद्धा तीखे भालों से फलों की तरह विपक्षियों के मस्तक काट लेते थे। संग्रामजित, बृहत्सेन, शूर, प्रहरण, विजत्, जय, सुभद्र, वाम, सत्यक तथा अश्वयु-भद्रा के गर्भ से उत्पन्न हुए ये दैत्य पुंगवों के साथ युद्ध करने लगे। महाराज। हाथी पर चढ़े हुए महान असुर भूत-संतापन ने अपने नाराचों की वर्षा से दुर्दिन का दृश्य उपस्थित कर दिया। भूत-संताप के बाणों द्वारा अन्धकार फैला दिये जाने पर श्रीकृष्ण के बलवान पुत्र संग्रामजित उसका सामना करने के लिये आये। उन्होंने रणभूमि में सैकड़ों बाण मारकर भूत-संतापन ने घायल कर दिया। तब बलवान भूत संतापन ने प्रलय काल के समुद्रों के संघर्ष से प्रकट होने वाले भयंकर घोष के समान टंकार-ध्वनि करने वाली संग्रामजित ने विद्युत के समान दीप्तिमान अपना दूसरा धनुष लेकर उस पर विधिपूर्वक प्रत्यंचा चढ़ायी, फिर सौ बाण छोड़े। वे बाण भूत-संतापन के धनुष की प्रत्यंचा, लोहनिर्मित् कवच, शरीर और हाथी का छेदन-भेदन करते हुए धरती में समा गये। बाणों के उस प्रहार से पीड़ित हो भूत-संतापन मन ही मन कुछ घबराया, फिर उस बलवान वीर ने अपने हाथी को आगे बढ़ाया। काल और यम के समान भयानक उस हाथी को आक्रमण करते देख, बलवान संग्रामजित ने अपना दिव्य खड्ग लेकर रणभूमि में उसके ऊपर प्रहार किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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