गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 12
महामुनि त्रित के शाप से कक्षीवान का शंक रूप होकर सरोवर में रहना और श्रीकृष्ण के द्वारा उसका उद्धार होना; शंखोद्धार-तीर्थ की महिमा एक समय श्रीकृष्ण भक्त शान्तचित महामुनि त्रित तीर्थयात्रा के प्रसंग से आनर्त देश में आये। वहाँ एक सुन्दर सरोवर देखकर मुनि ने उसमें स्नान करके श्रीहरि की पूजा की। उस पूजा में सुन्दर लक्षणों से युक्त जो महाशंक वे बजाया करते थे, उसे उन्हीं के शिष्य कक्षीवान ने अत्यन्त लोभ के कारण चुरा लिया। पूजा का शंख चुराया गया देखा मुनिवर त्रित कुपित होकर बोले- ‘जो मेरा शंख ले गये है, वह अवश्य ही शंख हो जाये।’ कक्षीवान् तत्काल शाप से पीड़ित हो शंख हो गया और गुरु के चरणों में गिरकर बोला- ‘भगवान ! मेरी रक्षा कीजिये। त्रितमुनि शीघ्र ही शान्त हो गये और बोले- ‘दुर्बुद्धे ! यह तुमने क्या किया ? चोरी के दोष से जा पाप हुआ है, उसका फल भोग। मेरी बात झूठी नहीं हो सकती। तू यहाँ श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का चिन्तन करता रहा; वे ही तेरा उद्धार करेंगे। राजन् ! यों कहकर जब महामुनि त्रिदेव वहाँ से चले गये, तब शंकरूपधारी कक्षीवान उस सरोवर में कूद पड़ा और ’कृष्ण ! कृष्ण ! !’ पुकारता हुआ सौ वर्षों तक वहीं रहा। तदनन्तर भक्तवत्सल परिपूर्णतम साक्षात भगवान श्रीकृष्ण उस सरोवर के तट पर आये और उसे अभय दान देते हुए बोले- ‘डरो मत। ‘मेघ-गर्जना के समान चीख उठा- ‘देवदेव ! जगत्पते ! मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। ‘तब सर्व सामर्थ्यशाली कृपापराण भगवान ने नागराज के शरीर की भाँति अपने हष्ट–पुष्ट भुजा के द्वारा उस भक्त शंख का उसी प्रकार जल से उद्धार किया था। कक्षीवान उसी क्षण शंक का रूप छोड़कर दिव्यरूपधारी हो गया और हाथ जोड़ श्रीहरि को नमस्कार करके उनकी स्तुति करने लगा । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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