गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 46
यादवों और गन्धर्वों का युद्ध, बलभद्रजी का प्राकट्य, उनके द्वारा गन्धर्व सेना का संहार, गन्धर्वराज की पराजय, वसन्तमालती नगरी का हल द्वारा कर्षण; गन्धर्वराज का भेंट लेकर शरण में आना और उन पर बलरामजी की कृपा नारदजी कहते हैं- राजन् ! भगवान श्रीकृष्ण के द्वारकापुरी को चले जाने पर प्रद्युम्न अपने सैनिकों के साथ कामदुघनद के समीप गये। वहाँ गन्धर्वों की मनोहारिणी हेमरत्नमयी वसन्त मालती नाम की नगरी है, जिसका विस्तार सौ योजन का है। लवंग लताओं के समूह, इलायची, केसर, जायफल, जावित्री, श्रीखण्ड चन्दन और पारिजात के वृक्ष उस पुरी की शोभा बढ़ाते थे। मतवाले भ्रमरों के गज्जारव से निनादित, विचित्र पक्षियों के कलरव से मुखरित तथा गन्धर्वों से सुशोभित वह नगरी नागों से युक्त भोगवतीपुरी के समान शोभा पाती थी। वहीं पतंग नाम से प्रसिद्ध महाबली गन्धर्वराज राज्य करते थे, जो बड़े पुण्यात्मा थे और जिनका बल-पौरुष देवराज इन्द्र के समान था। उन्होंने सुना कि दिग्विजय के लिये निकले हुए प्रद्युम्न आ रहे हैं, तब उन गन्धर्वराज ने उद्भट गन्धर्वों से युक्त होकर युद्ध करने का निश्चय किया। रथ, घोड़े, हाथी और पैदल दस करोड़ गन्धर्वों के साथ राजा पतंग प्रद्युम्न के सामने युद्ध के लिये आये। गन्धर्वों और यादवों में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। भालों, गदाओं, परिघों, मुद्ररों, तोमरों तथा ऋष्टियों की मार होने लगी। बाणों से अन्धकार फैल जाने पर अतिरथी बलवान वीर पतंग धनुष को टंकारते हुए आगे बढ़े और मेघ के समान गर्जना करने लगे। बलदेवजी के बलवान अनुज गद ने गदा लेकर गन्धर्वों की सेना को वैसे ही धराशायी करना आरम्भ किया, जैसे देवराज इन्द्र वज्र से पर्वतों को ढहा देते हैं। गद की गदा के प्रहार से कितने ही गन्धर्व युद्धभूमि में गिर गये, उनके रथ चूर-चूर हो गये और समस्त हाथियों के कुम्भस्थल फट गये। कितने ही घुड़सवार वीर भी युद्ध के मुहाने पर प्राण शून्य होकर पड़ गये। भुजाएं कट जाने से कितने ही गन्धर्व उत्तान मुख और औंधे मुख पड़े दिखायी देते थे। क्षणमात्र में गन्धर्वों की सेना में खून की नदी बह चली। प्रमथगण भगवान रुद्र की मुण्डमाला बनाने के लिये युद्धभूमि में नरमुण्डों का संग्रह करने लगे। सिंह पर चढ़ी हुई भद्रकाली सैकड़ों डाकिनियों के साथ युद्धभूमि में आकर खप्पर में खून भर-भरकर पीती दिखायी देने लगीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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