गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 2
ब्रह्मादि देवों द्वारा गोलोक धाम का दर्शन श्रीनारदजी कहते हैं- जो जीभ पाकर भी कीर्तनीय भगवान श्रीकृष्ण का कीर्तन नहीं करता, वह दुर्बुद्धि मनुष्य मोक्ष की सीढ़ी पाकर भी उस पर चढ़ने की चेष्टा नहीं करता।[1] राजन ! अब इस वाराहकल्प में धराधाम पर जो भगवान श्रीकृष्ण का पदार्पण हुआ है और यहाँ उनकी जो-जो लीलाएँ हुई हैं, वह सब मैं तुमसे कहता हूँ; सुनो ! बहुत पहले की बात है- दानव, दैत्य, आसुर स्वभाव के मनुष्य और दुष्ट राजाओं के भारी भार से अत्यंत पीडित हो, पृथ्वी गौ का रूप धारण करके, अनाथ की भाँति रोती-बिलखती हुई अपनी आंतरिक व्यथा निवेदन करने के लिये ब्रह्माजी की शरण में गयी। उस समय उसका शरीर काँप रहा था। वहाँ उसकी कष्ट कथा सुनकर ब्रह्माजी ने उसे धीरज बँधाया और तत्काल समस्त देवताओं तथा शिवजी को साथ लेकर वे भगवान नारायण के वैकुण्ठधाम में गये। वहाँ जाकर ब्रह्माजी ने चतुर्भुज भगवान विष्णु को प्रणाम करके अपना सारा अभिप्राय निवेदन किया। तब लक्ष्मीपति भगवान विष्णु उन उद्विग्न देवताओं तथा ब्रह्माजी से इस प्रकार बोले। श्रीभगवान ने कहा- ब्रह्मन ! साक्षात भगवान श्रीकृष्ण ही अगणित ब्रह्माण्डों के स्वामी, परमेश्वर, अखण्ड स्वरूप तथा देवातीत हैं। उनकी लीलाएँ अनंत एवं अनिर्वचनीय हैं। उनकी कृपा के बिना यह कार्य कदापि सिद्ध नहीं होगा, अत: तुम उन्हीं के अविनाशी एवं परम उज्ज्वल धाम में शीघ्र जाओ।[2] श्रीब्रह्माजी बोले- प्रभो ! आपके अतिरिक्त कोई दूसरा भी परिपूर्णतम तत्त्व है, यह मैं नहीं जानता। यदि कोई दूसरा भी आपसे उत्कृष्ट परमेश्वर है, तो उसके लोक का मुझे दर्शन कराइये। श्रीनारदजी कहते हैं- ब्रह्माजी के इस प्रकार कहने पर परिपूर्णतम भगवान विष्णु ने सम्पूर्ण देवताओं सहित ब्रह्माजी को ब्रह्माण्ड शिखर पर विराजमान गोलोकधाम का मार्ग दिखलाया। वामनजी के पैर के बायें अँगूठे से ब्रह्माण्ड के शिरोभाग का भेदन हो जाने पर जो छिद्र हुआ, वह ‘ब्रह्मद्रव’ (नित्य अक्षय नीर) से परिपूर्ण था। सब देवता उसी मार्ग से वहाँ के लिये नियत जलयान द्वारा बाहर निकले। वहाँ ब्रह्माण्ड के ऊपर पहुँचकर उन सबने नीचे की ओर उस ब्रह्माण्ड को कलिंगबिम्ब (तूँबे) की भाँति देखा। इसके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से ब्रह्माण्ड उसी जल में इन्द्रायण-फल के सदृश इधर-उधर लहरों में लुढ़क रहे थे। यह देखकर सब देवताओं को विस्मय हुआ। वे चकित हो गये। वहाँ से करोड़ों योजन ऊपर आठ नगर मिले, जिनके चारों ओर दिव्य चहारदीवारी शोभा बढ़ा रही थी और झुंड़-के-झुंड़ रत्नादिमय वृक्षों से उन पुरियों की मनोरमा बढ़ गयी थी। वहीं ऊपर देवताओं ने विरजा नदी का सुन्दर तट देखा, जिससे विरजा की तरंगें टकरा रही थीं। वह तटप्रदेश उज्ज्वल रेशमी वस्त्र के समान शुभ्र दिखायी देता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिह्वां लब्धवापि य: कृष्णं कीर्तनीयं न कीर्तयेत्। लब्ध्वापि मोक्षनि: श्रेणीं स नारोहति दुर्मति: ।। (गर्ग0 गोलोक0 2।1)
- ↑ श्री भगवानुवाच- कृष्णं स्वयं विगणिताण्डपतिं परेशं साक्षादखण्डकमतिदेवमतीवलीलम्। कार्यं कदापि न भविष्यति यं विना हि गच्छाशु तस्य् विशदं पदमव्ययं त्वम् ।। (गर्ग0 गोलोक0 2।7)
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