गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 20
इन्द्रतीर्थ, ब्रह्मतीर्थ, सूर्यकुण्ड नीललोहित-तीर्थ और सप्तसामुद्रक-तीर्थ का माहात्म्य श्रीनारदजी कहते हैं- विदेहराज ! द्वितीय दुर्ग के भी पूर्वद्वार पर पुण्यमय ‘इन्द्रतीर्थ’ है, जो अभीष्ट भोगों का देने वाला तथा सिद्धिदायक है। राजन् ! उस तीर्थ में स्नान करके मनुष्य इन्द्रलोक को जाता है तथा इस लोक में भी चन्द्रमा के समान उज्ज्वल वैभव प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार दक्षिण द्वार पर ‘सूर्यकुण्ड’ नामक तीर्थ बताया जाता है, जहाँ सत्राजित ने स्यमन्तक की पूजा की थी। नृपेश्वर ! वहाँ स्नान करके जो मनुष्य पद्मरागमणि का दान करता है, वह सू्र्य के समान तेजस्वी विमान के द्वारा सूर्य लोक को जाता है। इसी प्रकार पश्चिमद्वार ‘ब्रह्मतीर्थ’ नामक एक विशिष्ट तीर्थ है। राजन ! जो बुद्धिमान मानव वहाँ स्नान करके सोने के पात्र में खीर का दान करता है, उसके पुण्यफल का वर्णन सुनो। वह ब्रह्माघाती, पितृघाती, गोहत्यारा, मातृहत्यारा और आचार्य का वध करने वाला पापी भी क्यों ने हो, इन्द्रलोक में पैर रखकर ब्रह्ममय शरीर धारण करके चन्द्रमा के समान उज्ज्वल विमान द्वारा ब्रह्माधाम को जाता है। इसी प्रकार उत्तरद्वार पर भगवान नीललोहित का क्षेत्र है, जहाँ साक्षात नीललोहित महादेव विराजते हैं। विदेहराज ! उस तीर्थ में समस्त देवता, मुनि, सप्तर्षि तथा सम्पूर्ण मुद्रण निवास करते हैं। उसी तीर्थ में प्रयत्नपूर्वक ‘नीललोहित’ नामक शिवलिंग की पूजा करके लोकरावण ने अनुमप ऐश्वर्य प्राप्त किया था। नरेश्वर ! कैलाश की यात्रा करने पर मनुष्य जिस फल को पाता है, उससे सौगुना पुण्य भगवान नीललोहित के दर्शन से होता है। जो मनुष्य ‘नीललोहित कुण्ड’ में तीन दिनों तक स्नान करता है, वह सहस्त्रों पापों से युक्त होने पर भी शिवलोक में जाता हैं। जहाँ ‘सप्त-सामुद्रक’ अथवा ‘सप्त-सागर’ तीर्थ सुशोभित है, वहाँ उस तीर्थ में स्नान करके पापी मनुष्य पाप-समूहों से छुटकारा पा जाता है तथा सात समुद्रों में स्नान करने का पुण्य वह तत्काल प्राप्त कर लेता है। मनुजेश्वर ! उस तीर्थ के आस-पास भगवान विष्णु, ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, पर्जन्य, कुबेर, सोम, पृथ्वी, अग्नि, और जल के स्वामी वरुण- सदा निवास करते हैं। नरेश्वर! ब्रह्माण्ड में जो कोई सात करोड़ तीर्थ हैं, वे सब उस ‘सप्तसामुद्रक-तीर्थ’ में वास करते हैं। उसमें स्नान करने के पश्चात जो मनुष्य उस सम्पूर्ण तीर्थ की परिक्रमा करता है, वह द्वारका यात्रा का सारा फल पा लेता है। ‘सप्तसामुद्रक-तीर्थ’ की यात्रा किये बिना द्वारका यात्रा फलवती नहीं होती। देवताओं ने ‘सप्तसामुद्रक-तीर्थ’ को भगवान विष्णु का स्वरूप माना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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