गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 4
श्रीकृष्ण का गोपियों के घरों में जाकर उन्हें सान्त्वना देना तथा मार्ग में रथ रोककर खड़ी हुई गोपांगनाओं को समझाकर उनका मथुरापुरी की ओर प्रस्थित होना श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार कहती हुई गोपांग्नाओं के अत्यंत विरह-केश को जानकर भगवान श्रीकृष्ण उन सबके घरों में गये। मिथिलेश्वर! जितनी व्रजांग्नाएँ थी, उतने ही रूप धारण करके भगवान श्रीहरि ने स्वयं सबको पृथक-पृथक समझाया। श्रीराधा के भवन में जाकर देखा कि वे सखियों से घिरी हुई एकान्त स्थान मूर्च्छित पड़ी है, तब उन्होनें मधुर स्वर में मुरली बजायी। वंशी की ध्वनि सुनकर श्रीराधा सहसा आतुर होकर उठीं। उन्होंने आँख खोलकर देखा तो श्रीगोविन्द सामने उपस्थित दिखायी दिये। जैसे पद्यिनी कमलिनी-कुल-वल्लभ सूर्य का दर्शन करके प्रसन्न हो जाती है, उसी प्रकार पद्यिनी नायिका श्रीराधा अपने प्राणवल्लभ को सामने देखकर आनन्द में मग्न हो गयीं और उन्होंने उठकर वहाँ पधारे हुए श्याम सुन्दर के लिये सादर आसन दिया। कमलनयनी श्रीराधा के मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। वे अत्यन्त दीन होकर शोक कर रही थीं, अत: भगवान ने मेघ के समान गंभीर वाणी में उनसे कहा । श्रीभगवान बोले– भद्रे ! राधिके ! तुम्हारा मन उदास क्यों है ? तुम इस तरह शोक न करो। अथवा मेरी मथुरा जाने की इच्छा सुनकर तम विरह से व्याकुल हो उठी हो ? देखो, ब्रह्माजी की प्रार्थना से मैं इस पृथ्वी का भार उतारने और कंसादि असुरों का संहार करने के लिये तुम्हारे साथ इस भूतलपर अवतीर्ण हुआ हूँ। अत: अपने अवतार के उद्देश्य की सिद्धि के लिये मैं मथुरा अवश्य जाउँगा और भूमिका भार उतारूँगा। तत्पश्चात् शीघ्र यहाँ आउँगा और तुम्हारा मंगल करूँगा। नारद जी कहते हैं– जगदीश्वर श्रीहरि के यों कहने पर वियोग विह्वल श्रीराधा दावानल से दग्ध लता की भाँति मूर्च्छित हो गयीं और उनमें कम्प, रोमांच आदि सात्त्विक भाव प्रकट हो गये। उस अवस्था में वे अपने प्राणवल्लभ से बोलीं । श्रीराधा ने कहा– प्राणानाथ ! तुम पृथ्वी का भार उतारने के लिये अवश्य मथुरापुरी को जाओ, परंतु मेरी इस निश्चित प्रतिज्ञा को भी सुन लो। यहाँ से तुम्हारे चले जाने पर मैं शरीर को कदापि धारण नहीं करूँगी। यदि तुम मेरी इस प्रतिज्ञा या शपथ पर ध्यान नहीं देते हो तो दूसरी बार पुन: अपने जाने की बात कहकर देख लो। मैं तुरंत कथा शेष हो जाउँगी। मेरे प्राण अधरों की राह से निकल जाने की अत्यन्त आकुल हैं, ये कपूर की धूलि-कणों के समान शीघ्र ही उड़ जायँगे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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