गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 4
पारिजात हरण श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन ! स्वर्ग में जाकर इन्द्र को उनका छत्र और मणि देकर श्रीकृष्ण ने माता अदिति को उनके दोनों कुण्डल अर्पित कर दिये। उसके बाद अपना अभिप्राय व्यक्त किया। श्रीहरि के अभिप्राय को जानकर भी जब इन्द्र ने पारिजात वृक्ष नहीं दिया, तब माधव ने देवताओं को पराजित करके पारिजात को बलपूर्वक अपने अधिकार में ले लिया। सूतजी कहते हैं- शौनक ! यह कथा सुनकर यादवनरेश वज्र को बड़ा विस्मय हुआ। श्रीहरि के गुणों का श्रद्धा रखते हुए उन्होंने पुन: अपने गुरु से पूछा- ‘ब्रह्मन ! इन्द्र तो देवताओं के राजा हैं। वे यह जानते हैं कि श्रीकृष्ण साक्षात परमेश्वर श्रीहरि हैं, तथापि उनहोंने भगवान के प्रति अपराध कैसे किया ? यह ठीक-ठीक बताइये। इन्द्र की चेष्टा को सत्यभामा ने पहले ही भांप लिया था और श्रीकृष्ण के सामने सुस्पष्ट बता दिया था। अत: इस प्रसंग को सुनने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है। आप इन्द्र और माधव के इस युद्ध का मेरे समक्ष विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। श्रीगर्गजी बोले- राजन ! अदिति ने भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति और इन्द्र ने भी पारिजात ले जाने के लिये स्वीकृति दे दी, तब भगवान श्रीकृष्ण नन्दवन में गये और वहाँ बहुत-से पारिजात वृक्षों का अवलोकन करने लगे। उन सबके बीच में एक महान वृक्ष था, जो बहुत-सी मंचरियों के पुंज को धारण किये अनुपम शोभा पा रहा था। कहते हैं, वह वृक्ष क्षरसागर के मन्थन से प्रकट हुआ था। उससे कमलकी’ सी सुगन्ध निकल रही थी। वह देवताओं के लिये सुखद वृक्ष तांबे के समान रंगवाले नूतन पल्लवों से परिवेष्टित था। वह सुन्दर दिव्य वृक्ष उस वन का विभूषण था और उसकी छाल सुनहलें रंग की थी। उस पारिजात वृक्ष को देखकर मानिनी सत्यभामा ने माधव से कहा- ‘श्रीकृष्ण ! इस सम्पूर्ण वन में यही वृक्ष सबसे श्रेष्ठ है। अत: मै इसी को पसंद करती हूँ।’ प्रिया के इस प्रकार कहने पर वृक्ष को उखाड़कर लीलापूर्वक गरुड़ की पीठ पर रख लिया। उसी समय क्रोध से भरे हुए समस्त वनपाल धनुष-बाण धारण किये उठे और फड़कते हुए ओठों से श्रीकृष्ण को सम्बोधित करके इस प्रकार कहने लगे- ‘ओ मनुष्य ! यह इन्द्रवल्लभा महारानी शची का वृक्ष है। तुमने क्यों इसका अपहरण किया हैं ? अपनी इच्छा से अकस्मात हम सबको तिनके के समान समझकर हमारा अपकार करके तुम कहाँ जाओगे ? पूर्वकाल में समुद्र मन्थन के समय देवताओं ने इन्द्राणी की प्रसन्नता के लिये इस वृक्ष को उत्पन्न किया है। इस लेकर तुम सकुशल नहीं रह सकोगे। जिन्होंने पहले समस्त पर्वतों के पंख काट गिराये थे, उन वृत्रासुरनिषूदन वीर महेन्द्र को जीतकर ही तुम इस वृक्ष को ले जा सकोगे। अत: महावीर ! पारिजात को यहीं छोड़कर चले जाओ। हम देवराज इन्द्र के अनुचर हैं, इसलिये यह वृक्ष तुम्हें नही ले जाने देंगे। जब साक्षात पुरन्दर यह पारिजात वृक्ष दे देंगे, तब हम नहीं रोकेंगे। उस दशा में हम केवल वन के रक्षस होंगे। इस वृक्ष के नहीं। वनरक्षकों यह भाषण सुनकर सत्यभामा रोष से तमतमा उठीं। नरेश्वर ! श्रीहरि तो चुप रह गये, किंतु सत्यभामा निर्भय होकर उन रक्षकों से बोलीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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