गर्ग संहिता
गिरिराज खण्ड : अध्याय 3
श्रीकृष्ण का गोवर्धन पर्वत को उठाकर इन्द्र के द्वारा क्रोधपूर्वक करायी गयी घोर जलवृष्टि से रक्षा करना श्रीनारदजी कहते हैं– राजन ! तदनन्तर मेरे मुख से अपने यज्ञ का लोप तथा गोवर्धन पूजानोत्सव के सम्पन्न होने का समाचार सुनकर देवराज इन्द्र ने बड़ा क्रोध किया। उन्होंने उस सांतर्वक नामक मेघगण को, जिसका बन्धन केवल प्रलयकाल में खोला जाता है, बुलाकर तत्काल व्रज का विनाश कर डालने के लिये भेजा। आज्ञा पाते ही विचित्र वर्ण वाले मेघगण रोषपर्वूक गर्जना करते हुए चले। उनमें कोई काले, कोई पीले कोई हरे रंग के थे। किन्हीं की कान्ति इन्द्रगोप (वीरबहूटी) नामक कीड़ो की तरह लाल थी। कोई कपूर के समान सफेद थे और कोई नील कमल के समान नीली प्रभा से युक्त थे। इस तरह नाना रंगो के मेघ मदोन्मत्त हो हाथी के समान मोटी वारि-धाराओं की वर्षा करने लगे। पर्वतशिखर के समान करोड़ो प्रस्तरखण्ड वहाँ बड़े वेग से गिरने लगे। साथ ही प्रचण्ड आंधी चलने लगी, जो वृक्षों और घरों को उखाड़ फेंकती थी। मैथिलेन्द्र ! प्रलयंकर मेघों तथा वज्रपातों का महाभयंकर शब्द व्रजभूमि पर व्याप्त हो गया। उस भयंकर नाद से सातों लोकों और पातालों सहित ब्रहृाण्ड गूंज उठा, दिग्गज विचलित हो गये और आकाश से भूतलपर तारे टूट-टूटकर गिरने लगे। अब तो प्रधान-प्रधान गोप भयभीत हो, प्राण बचाने की इच्छा से अपने-अपने शिशुओं और कुटुम्ब को आगे करके नन्दमन्दिर में आये। बलराम सहित परमेश्वर श्रीनन्दन की शरण में जाकर समस्त भयभीत व्रजवासी उन्हें प्रणाम करके कहने लगे। गोप बोले -महाबाहु राम ! राम !! और व्रजेश्वर कृष्ण ! कृष्ण !! इन्द्र के दिये हुए इस महान कष्ट से आप अपने जनों की रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिये। तुम्हारे कहने से हम लोगों ने इन्द्रयाग छोड़कर गोवर्धन-पूजा का उत्सव मनाया, इससे आज इन्द्र का कोप बहुत बढ़ गया है। अब शीघ्र बताओ, हमें क्या करना चाहिए ? श्रीनारदजी कहते हैं– राजन ! गोपी और ग्वालों से युक्त गोकुल को व्याकुल देख तथा बछड़ों सहित गो-समुदाय को पीड़ित निहा, भगवान बिना किसी घबराहट के बोले। श्रीभगवान कहा– आपलोग डरें नहीं समस्त परिकरों के साथ गिरिराज के तटपर चलें। जिन्होंने तुम्हारी पूजा ग्रहण की है, वे ही तुम्हारी रक्षा करेंगे। श्रीनारदजी कहते हैं – राजन ! यों कहकर श्रीहरि स्वजनों के साथ गोवर्धन के पास गये और उस पर्वत को उखाड़कर एक ही हाथ से खेल-खेल में ही धारण कर लिया। जैसे बालक बिना श्रम के ही गोबर छत्ता उठा लेता है, अथवा जैसे हाथी अपने सूंड से कमल को अनायास उखाड़ लेता है, उसी प्रकार कृपालु करुणामय प्रभु श्रीव्रजराजनन्दन गोवर्धन पर्वत को धारण करके सुशोभित हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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