गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 5
रुक्मिणी की चिन्ता; ब्राह्मण द्वारा श्रीहरि के शुभागमन का समाचार पाकर प्रसन्नता; भीष्म द्वारा बलराम और श्रीकृष्ण का सत्कार; पुरवासियों की कामना; रुक्मिणी की कुलदेवी के पूजन के लिये यात्रा, देवी से प्रार्थना तथा सौभाग्यवती स्त्रियों से आशीर्वाद प्राप्त्िा श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्द का चिन्तन करती हुई कमललोचना भीष्मकुमारी रुक्मिणी उनके बिना जीवन को व्यर्थ मानने लगी। वह निरन्तर घनश्याम का ही ध्यान करती थी। इसी अवस्था में वह मन-ही-मन कहने लगी। रुक्मिणी बोली- अहो ! मेरे विवाह मुहूर्त आने मे अब एक ही रात बाकी रह गयी है, किंतु मेरे प्रियतम श्रीकृष्णचन्द्र नहीं आये। मैं नहीं जानती कि इसमें क्या कारण है ? जो ब्राह्मण देवता उनके पास गये थे, वे भी अब तक लौटकर नहीं आये। हे विधाता ! इसमें क्या हेतु है ? ये यदुकुल तिलक देवेश्वर श्रीकृष्ण निश्चय ही मुझमें कोई दोष देखकर मेरा पाणिग्रहण करने के निमित्त अधिक उद्योगशील होकर नहीं आ रहे हैं। हाय विधाता ! अब मैं क्या ? हाय ! मुझ अभागिनी के लिये विधाता अनुकूल नहीं हैं। चन्द्रशेखर भगवान शिव तथा गणेशजी भी प्रतिकूल हो गये हैं। भगवती गौरी ने भी मुझ से मुँह फेर लिया है और गौ तथा ब्राह्मण भी मेरे अनुकूल नहीं हैं । श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस तरह चिन्ता में पड़ी हुई वह भीष्मक- राजकुमारी महल की अट्टलिकाओं में चक्कर लगाती हर्इु ऊँचे शिखर से श्रीकृष्णचन्द्र की बाट देखने लगी। इतने में ही रुक्मिणी का बायँ अंग फड़क उठे, मानो वही उनकी शंका का उत्तर या समाधान था। काल को जानने वाली सर्वमंगला श्री भष्मनन्दिनी उस अंग स्फुरण से बहुत प्रसन्न हुई ।उसी समय श्रीकृष्ण का भेजा हुआ ब्राह्मण तत्काल वहाँ आ पहुँचा। श्रीकृष्ण का आगमन सम्बन्धी सारा वृतान्त उसने धीरे से रुक्मिणी को बता दिया। इससे श्रीभीष्मक राजकुमारी को बड़ा हर्ष हुआ और वह ब्राह्मण देवता के चरणों में प्रणत होकर बोली- ‘विप्रवर ! मैं तुम्हारे वंश से कभी दूर नहीं जाऊॅंगी (अर्थात तुम्हारी कुल परम्परा में धन सम्पत्ति का कभी अभाव नहीं होगा), यह मरेा प्रतिज्ञापूर्ण वचन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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