गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 44
गोपियों का श्रीकृष्ण को खोजते हुए वंशीवट के निकट आना और श्रीकृष्ण का मानवती राधा को त्याग कर अन्तर्धान होना वज्रनाभ बोले- ब्रह्मन ! मैंने आपके मुख से श्रीकृष्ण का अद्भुत चरित्र सुना। भगवान के अदृश्य हो जाने पर गोपियों ने क्या किया ? उन्होंने गोपांगनाओं को कैसे दर्शन दिया ? मुनिश्रेष्ठ ! मुझ श्रद्धालु भक्त को वह सारा प्रसंग सुनाइये। संसार में वे लोग धन्य हैं, जो सदा अपने कानों से श्रीकृष्ण की कथा सुनते हैं, मुख से श्रीकृष्णचंद्र के नाम जपते हैं, हाथों से प्रतिदिन श्रीकृष्ण की सेवा करते हैं, नित्य प्रति उनका ध्यान और दर्शन करते हैं तथा प्रतिदिन उन भगवान का चरणोदक पीते और प्रसाद खाते हैं। मुनिप्रवर ! इस भाव से श्रम करके जो लोग जगदीश्वर श्रीकृष्ण का भजन करते हैं, वे उनके परमधाम में जाते हैं। मुने ! जो शारीरिक सौख्य से उन्मत्त होकर संसार में नाना प्रकार के भोग भोगते हैं और श्रवण–मनन आदि साधन नहीं करते, वे शरीर का अंत होने पर भयंकर यमदूतों द्वारा पकड़े जाते हैं और जब तक सूर्य तथा चंद्रमा की स्थिति है, तब तक के लिए कालसूत्र नरक में डाल दिए जाते है।[1] सूतजी कहते हैं– इस प्रकार प्रश्न करने वाले राजा वज्रनाभ की प्रशंसा करके मुनीश्वर गर्गजी गद्गदवाणी से उन्हें श्रीहरि का चित्रण सुनाने लगे । श्रीगर्गजी बोले- राजन् ! श्रीकृष्ण के अन्तर्धान हो जाने पर समस्त गोपांगनाएँ उन्हें न देखकर उसी तरह संतप्त हो उठीं, जैसे हरिणियां यूथपति हरिण को न पाकर दुखमग्न हो जाती हैं। भगवान श्रीहरि अन्तर्धान हो गए– यह जानकर समस्त गोप सुंदरियाँ पूर्ववत यूथ बनाकर चारों ओर वन-वन में उनकी खोज करने लगीं। परस्पर मिल कर वे समस्त वृक्षों से पूछने लगीं– वृक्षगण ! नन्दनन्दन श्रीकृष्ण हमको अपने कटाक्ष बाण से घायल करके कहाँ चले गए ? यह बात हमें बता दो, क्योंकि तुम सब लोग इस वन के स्वामी हो। सूर्य नंदिनी यमुने ! तुम्हारे पुलिन के प्रांगण में प्रतिदिन गाएं चराते हुए जो तरह–तरह की लीलाएँ किया करते थे, वे गोपाल श्रीकृष्ण कहाँ चले गए ? यह हमें बताओ। सैकड़ों शिखरों से सुशोभित होने के कारण शतशृंग नाम से विख्यात गोवर्धन ! तुम गिरिराज हो। तुम्हें पूर्वकाल में इंद्र के कोप से व्रजवासियों की रक्षा करने के लिए श्रीनाथजी ने अपने बाएँ हाथ पर धारण किया था, तुम श्रीहरि के औसत पुत्र हो, इसलिए वे कभी तुमको छोड़ते नहीं हैं। अत: तुम्ही बताओ, वे नन्दनन्दन हमें वन में छोड़कर कहाँ गए और इस समय कहाँ हैं ? हे मयूर ! हरिण ! गौओं ! मृगों ! तथा विहंगमो ! क्या तुमने काली–काली घुंघराली अलकों से सुशोभित किरीटधारी श्रीकृष्ण को देखा है ? बताओ ! वे हमारे मदनमोहन इस समय कहाँ, किस वन में हैं ? । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ धन्यास्ते ये हि शृण्वन्ति कर्णे कृष्णकथां सदा।।
मुखेन कृष्णचंद्रस्य नामानि प्रजपन्ति हि। हस्तै: श्रीकृष्णसेवां वै ये प्रकुर्वन्ति नित्यश:।।
नित्यं कुर्वन्ति कृष्णस्य ध्यानं दर्शनमेव च। पादोदकं प्रसादं च ये प्रभुञ्जन्ति नित्यश:।।
इतीदृश्येन भावेन श्रमेण जगदीश्वरम्। ये भजन्ति मुनिश्रेष्ठ ते प्रयान्ति हरे: पदम्।।
संसारे ये प्रभुञ्जन्ति भोगान्नानाविधान् मुने। श्रवणादीन्न कुर्वन्ति देहसौख्येन दुर्मदा:।।
ते चान्ते यमदूतैश्च गृहीताश्च भयानकै:। पतिता: कालसूत्रे वै यावद्रविनिशाकरो।।
( अध्याय 44। 2 – 7 )
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