गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 21
श्रीकृष्ण का की द्रवरूपता के प्रसंग में नारदजी का उपाख्यान राधा ने कहा- माधव ! ये मुनिश्रेष्ठ धन्य हैं, जो तुम्हारे इतने बड़े भक्त और महान प्रेमी थे। इन्होंने तुम्हारा सारूप्य प्राप्त कर लिया और तुम भी इनके लिये आँसू बहाते रहे। पापनाशन ! अब तुम्हें इनके शरीर का दाह संस्कार भी करना चाहिये। इनका यह शरीर तपस्या के प्रभाव से अभी तक निर्मल आकार में प्रकाशित हो रहा है। नारदजी कहते हैं- राजन् ! वहाँ श्रीराधा इस प्रकार कह ही रही थीं कि मुनि का शरीर एक नदी के रूप में परिणत हो गया। रोहिताचल पर बहाती हुई वह पापनाशिनी नदी आज भी देखी जाती है। उनके शरीर को नदी के रूप में परिणत देख राधा को और भी अधिक विस्मय हुआ। तब वे वृषभानुवर नन्दिनी नन्दराजकुमार से इस प्रकार बोलीं। राधाने कहा- श्यामसुन्दर ! इन महामुनि का यह शरीर जल रूप में कैसे परिणत हो गया ? देव! मेरे इस संशय को तुम पूर्णरूप से मिटा दो। श्रीभगवान ने कहा- रम्भोरू ! ये मुनीश्रर प्रेम लक्षणा भक्ति से संयुक्त थे, इसीलिये इनका यह शरीर द्रवभाव को प्राप्त हुआ है। तुम्हारे साथ मुझे वर देने के लिये आया देख महामुनि ऋभु अत्यन्त हर्षित हुए थे, इसीलिये इनका कलेवर उसी प्रकार जलरूप में परिणत हो गया, जैसे मैं पहले द्रवभाव को प्राप्त हुआ था। श्रीराधा ने पूछा- देवदेव ! दयानिधे ! तुम कैसे द्रवभाव को प्राप्त हुए थे। यह बात मुझे बड़ी विचित्र लग रही है, तुम विस्तार से सब बात बताओ। श्रीभगवान ने कहा- इस विषय में जानकार लोग इस प्राचीन इतिहास को सुनाया करते हैं, जिसके श्रवणमात्र से पापों का पूर्णतया नाश हो जाता हैं। पूर्वकाल में प्रजापति ब्रह्मा मेरे नाभि-कमल से प्रकट हो प्राकृत जगत की सृष्टि करने लगे। वे अपनी तपस्या और मेरे वरदान से शक्तिशाली रहे। एक समय सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की गोद से सुन्दर पुत्र नारदजी का जन्म हुआ। वे मेरी भक्ति से उन्मत्त होकर भूमण्डल पर भ्रमण करते हुए मेरे नाम पदों का कीर्तन करने लगे। एक दिन प्रजापति ब्रह्मदेव ने नारदजी से कहा- 'महामते ! यह व्यर्थ घूमना छोड़ों और प्रजा सृष्टि करो।' उनकी बात सुनकर ज्ञानमार्ग परायण नारद ने इस प्रकार कहा- 'पिताजी ! मैं सृष्टि नहीं करूँगा, क्योंकि वह शोक-मोह पैदा करने वाली हैं। मैं तो श्रीहरि के नामों का कीर्तन और उनकी भक्ति करूँगा। आप भी इस सृष्टि व्यापार में लगकर दुःख से अत्यन्त आतुर रहते हैं अतः आप भी सृष्टि-रचना छोड़ दीजिये'।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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