गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 14
द्वारका क्षेत्र के समुद्र तथा रैव तक पर्वत का माहात्म्य श्रीनारदजी कहते हैं- सबको सम्मान देने वाले नरेश ! अब द्वारावती और समुद्र के माहत्म्य का वर्णन सुनो, जो सब पापों को हर लेने वाला, पुण्यदायक तथा उन तीर्थों में स्नान का फल देने वाला है। महीपते ! जो वैशाख मास की पूर्णमासी को व्रत रहकर, स्नान पूर्वक नदीपति समुद्र का विधिवत पूजन और उसे नमस्कार करके रत्नों का दान करता है, उसके शरीर में तीनों देवता (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) निवास करते हैं तथा उसके दर्शन मात्र से मनुष्य कृतार्थ हो जाता है। इतना ही नहीं– उसके शरीर के स्पर्श से तत्काल ब्रह्महत्या छूट जाती है तथा वह जहाँ-जहाँ जाता है वहाँ-वहाँ की भूमि मंगलमयी हो जाती है। जगत वध करने वाला पापी मनुष्य भी उसका दर्शन करके करने पर अपने पाप-समूह का उच्छेद कर डालता और परम मोक्ष को प्राप्त होता है। मानद ! अब रैवत पर्वत का माहात्म्य सुनो, जो समस्त पापों को दूर करने वाला, पुण्यदायक तथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। गौतम का पुत्र मेधावी बड़ा बुद्धिमान और विष्णु भक्त था। उसने सौ अयुत वर्षों तक विन्ध्याचल पर्वत पर तपस्या की। एक दिन साक्षात अपान्तरतमा नामक मुनि उससे मिलने के लिये आये, परंतु उत्कट तपस्वी मेधावी अपने आसन से नहीं उठा। तब अपान्तरतमा रोष से भर गये और उसे शाप देते हुए बोले- ‘संतों के प्रतिभक्ति न रखने वाले पापात्मन् ! तुझे अपने तपोबल पर बड़ा गर्व हो गया है। तेरी स्थिति पर्वत के समान है। अत: दुर्मेते ! तू यहीं पर्वत हो जा। ‘यों कहकर साक्षात अपान्तरतमा मुनि चले गये। मेधावी शैलभाव को प्राप्त हो श्री शैल का पुत्र हुआ। परंतु वह महाबुद्धिमान तपस्वी तथा विष्णुभक्ति के प्रभाव से पूर्वजन्म की बातें का स्मरण करने वाला हुआ। एक दिन मेरे मुख से द्वाराकपुरी का माहात्म्य सुनकर श्रीशैल के पुत्र ने कहा- मुने ! आप शीघ्र राजा रैवत के पास जाइये और उन को मेरी कही हुई प्रार्थना सुना दीजिये; क्योंकि आप बडे़ दीनवत्सल हैं। ये महाबली राजा रैवत यदि प्रसन्न हो जायं और मझे यहाँ से उठा ले चलें, तब मेरा द्वारकापुरी के क्षेत्र में निवास समभव होगा। ‘विष्णु भक्तों को शान्ति प्रदान करना तो मेरा काम ही ठहरा। मैंने उस पर्वत कुमार की बात सुनकर शीघ्र ही राजा रैवत के पास जा उसकी कही हुई बात सुना दी। राजन् ! मेरी बात सुनकर राजा रैवत बडे़ प्रसन्न हुए और बोले- ‘यहाँ कोई पर्वत नहीं है; अत: उस शैलपुत्र को दनों भुजाओं से उखाड़कर यहाँ लाऊँगा और द्वारका में उसकी स्थापना करुँगा।’ ऐसी प्रतिज्ञा उन्होंने की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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