गर्ग संहिता
गिरिराज खण्ड : अध्याय 5
गोपों का श्रीकृष्ण के विषय में संदेह मूलक विवाद तथा श्रीनन्दराज एवं वृषभानुवर के द्वारा समाधान श्रीनारदजी कहते हैं– एक समय समस्त गोपों और गोपियों ने नन्दनन्दन के उस अद्भुत चरित्र को देखकर यशोदासहित नन्द के पास जकार कहा। गोप बोले–हे यशोमय गोपराज ! तुम्हारे वंश में पहले कभी कोई भी ऐसा बालक नहीं उत्पन्न हुआ था, जो पर्वत उठा ले। तुम स्वयं तो एक शिलाखण्ड भी सात दिन तक नहीं उठाये रह सकते। कहाँ तो सात वर्ष का बालक और कहाँ उसके द्वारा इतने बड़े गिरिराज को हाथ पर उठाये रखना। इससे तुम्हारे इस महाबली पुत्र के विषय में हमें शंका होती है। जैसे गजराज एक कमल उठा ले और जैसे बालक गोबर-छत्ता हाथ में ले ले, उसी तरह इसने खेल-ही-खेल में एक हाथ से गिरिराज को उठा लिया था । यशोदे ! तुम गोरी हो, और नन्दजी ! तुम भी सुवर्णसदृश गौरवर्ण के हो, किंतु यह श्यामवर्ण का उत्पन्न हुआ है। इसका रूप-रंग इस कुल के लोगों से सर्वथा विलक्षण है। यह बालक तो ऐसा है, जैसे क्षत्रियों के कुल में उत्पन्न हुआ हो। बलभद्रजी भी विलक्षण हैं, किंतु इनकी विलक्षणता कोई दोष की बात नहीं है, क्योंकि इनका जन्म चन्द्रवंश में हुआ है। यदि तुम सच-सच नहीं बताओगे तो हम तुम्हे जाति से बहिष्कृत कर देंगे। अथवा यह बताओ कि गोपकुल में इसकी उत्पत्ति कैसे हुई ? यदि नही बताओगे तो हमसे तुम्हारा झगड़ा होगा। श्रीनारदजी कहते हैं– गोपों की बात सुनकर यशोदाजी तो भय से कांप उठीं, किंतु उस समय क्रोध से भरे हुए गोपगणों से नन्दराज इस प्रकार बोले । श्रीनन्दजी ने कहा– गोपगण ! मैं एकाग्रचित्त होकर गर्गजी की कही हुई बात तुम्हें बता रहा हूं, जिससे तुम्हारे मन की चिन्ता और व्यथा शीघ्र दूर हो जायगी। पहले ‘कृष्ण’ शब्द के अक्षरों का अभिप्राय सुनो– ‘ककार’ कमलाकान्त का वाचक है, ‘ऋकार’ राम का बोधक है, ‘षकार’ श्वेतद्वीप निवासी षड्विध ऐश्वर्य गुणों के स्वामी भगवान विष्णु का वाचक है, ‘णकार’ साक्षात नरसिंह स्वरूप है, ‘अकार’ उस अक्षर पुरुष का बोधक है, जो अग्नि को भी पी जाता है। अन्त में जो ‘विसर्ग’ नामक दो बिन्दु हैं, ये ‘नर’ और नारायण’ ऋषियों के प्रतीक हैं। ये छहों पूर्ण तत्व जिस परिपूर्णतम परमात्मा में लीन हैं, वही साक्षात ‘कृष्ण’ है। इसी अर्थ में इस बालक का नाम ‘कृष्ण‘ कहा गया है। युग के अनुसार इसका वर्ण सत्युग में ‘शुक’, त्रेतामें ‘रक्त’ तथा द्वापर में ‘पीत’ होता आया है। इस समय द्वापर के अन्त और कलियुग के आदि में यह बालक ‘कृष्ण’ रूपको प्राप्त हुआ है। इस कारण से यह नन्दनन्दन ‘कृष्ण’ नाम से विख्यात है। पांच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन, बुद्धि, चित्त– ये तीन प्रकार के अन्त: करण ‘आठ वसु’ कहे गये हैं। इनके अधिष्ठाता देवता भी इसी नाम से प्रसिद्ध हैं। इन वसुओं में अन्तर्यामीरूप से स्थित होकर ये श्रीकृष्णदेव ही चेष्टा करते हैं, इसलिये इन्हें ‘वासुदेव’ कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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