गर्ग संहिता
बलभद्र खण्ड: अध्याय 9
श्री बलराम जी की रासलीला का वर्णन दुर्योधन ने पूछा- भगवन ! मुनिसत्तम ! भगवान बलभद्रजी ने नागकन्या गोपियों के साथ यमुनाजी के तट पर कब विहार किया था। प्राडविपाक मुनि बोले- एक समय की बात है, व्रज के सुहद्-बन्धुओं को देखने की बलरामजी के मन में बड़ी उत्कण्ठा पैदा हो गयी। तब वे अपने तालध्वज से युक्तरथ पर सवार होकर द्वारका से निकले और गौओं, गोपालों तथा गोपियों से भरे गोकुल में जा पहुँचे। नन्दराज और यशोदाजी भी बहुत दिनों से उन्हें देखने के लिये उत्कण्ठित थे, अत एव उन्होंने उनको हृदय से लगा लिया। फिर बलभद्रजी गौओं, गोपियों और गोपालों से मिले और पूरे वसन्त के दो महीने उन्होंने वहाँ निवास किया। पहले जिन नागकन्याओं के गोपी होने का वर्णन आ चुका है, उन्होंने गर्गाचार्यजी से बलभद्रजी का पंचाग[1] प्राप्त करके उसे सिद्ध किया था। उसी के प्रभाव से बलभद्रजी ने प्रसन्न होकर कालिन्दी के तट पर उनके साथ रासमण्डल में रास क्रीड़ा की। उस दिन चैत्र की पूर्णिमा थी। अरुण वर्ण के पूर्ण चन्द्र उदित होकर सारे वन को अपनी रंग विरंगी किरणों से रज्जित कर रहे थे। शीतल पवन कमल के मकरन्द और पराग को लिये सर्वत्र मन्दगति से प्रवाहित हो रहा था। आनन्ददायिनी यमुना अपनी चंचल लहरियों से निर्मल पुलिन भूमि को व्याप्त कर रही थी। कुज्जों की प्रागण भूमि विविध निकुंज पुज्जों से सुशोभित तथा चमचमाते आवृत थी। मोर और कोयल मधुर स्वर में कूंज रहे थे और मधुपान मत्त मधुकरों की मधुर ध्वनि से मुखरित व्रज भूमि अत्यन्त शोभा को प्राप्त हो रही थी। बलरामजी के पैरों में नूपुर की मधुर ध्वनि हो रही चमकती हुई मणियों के कड़े, करधनी, केयूर, हार, किरीट और कुण्डलों वे अलंकृत थे। उनके वदन पर कमल-दल की छटा छा रही थी। वे नीलाम्बर धारण किये हुए थे। उनके विमल कमलदल के समान नेत्र थे। ऐसे श्री बलदेवजी यक्षिणियों के साथ यक्षराज की भाँति रासमण्डल में गोपियों के द्वारा घिरे हुए विराजित थे। तदनन्तर वरुण द्वारा प्रेरित वारुणी देवी वृक्षों के कोटरों से प्रकट होकर बहने लगीं। उस पुष्पा सवकी सुगन्ध से सारा वन सुगन्ध मय हो गया। मधु के लोभ से मधुकर पुंज मधुर गुज्जार करने लगा। वारुणि पान से मद विहल, कमल दल के समान विशाल और अरुण नेत्र वाले बलदेवजी के अंग प्रेमावेश से चंचल हो उठे। तदनन्तर लीला विहारजन्य श्रम के कारण जल कण की भाँति पसीने की बूंदें उनके मुख पर प्रकट हो गयीं और उन्होंने कपोलों पर रचित चित्रकारी को धो दिया। तदनन्तर गजराज की सी चाल वाले और गजेन्द्र ऐरावत की सूंड़ के समान विशाल भुजाओं वाले बल देवजी गोपियों के साथ वैसे ही क्रीड़ा करने लगे, जैसे उन्मत्त मातगड़ हथिनियों के साथ करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिसमें पद्धति, पटल, स्तोत्र, कवच और सहस्त्रनाम साधन के ये पांच अंग होते हैं, उसे ‘पंचांग’ कहते हैं।
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