गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 20
श्रीकृष्ण का कदली-वन मे श्रीराधा और गोपियों के साथ मिलन, रासोत्सव तथा उसी प्रसंग मे रोहिताचल पर महामुनि ऋभु का मोक्ष बहुलाश्र्व ने पूछा- मुने ! साक्षात भगवान ने व्रज मण्डल मे पधाकर आगे कौन-सा कार्य किया ? श्रीराधा तथा गोपांग्नाओं को किस प्रकार दर्शन दिया ! गोपियों के मनोरथ पूर्ण करके वे पुनः मथुरा मे कैसें आये ? विप्रेन्द्र ! आप परापरवेत्ताओं मे सर्वश्रेष्ठ है, अतः ये सब बातें मुझे बताइयें । श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! संध्याकाल मे श्रीराधा बुलावा पाकर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण सदा शीतल कदली-वन के एकान्त प्रदेश मे गये। वहाँ, जिसमें फुहारे चलते थे, ऐसा मेघमहल था, रम्भा द्वारा चन्दन छिड़का जाता था, यमुनाजी को छूकर प्रवाहित होने वाली मन्द वायु ठंडे जल के कण बिखेरती थी और सुधाकर चन्द्रमा की रश्मियों से निरन्तर अमृत झरता रहता था। ऐसा शीतल कदली-वन भी श्रीराधा के विरहानल की आँच से भस्मीभूत हो गया था। श्रीकृष्ण से मिलन की आशा ही श्रीराधा की निरन्तर रक्षा कर रही थी। वहीं गोपियों सारें के सारे यूथ आ जुटे, जो सैकड़ों की संख्या में थे। उन्होंने श्रीराधा से निवेदन किया कि ‘माधव पधारे हैं।’ यह सुनकर साक्षात वृषाभानुवर की पुत्री श्रीराधा सहसा उठी सखियों से घिरी हुई वे श्रीकृष्ण को लिवा लाने के लिए आयीं। उन्होंने श्रीहरि को आसन दिया। पाद्य, अर्घ्य और आचमन आदि मनोहर उपचार प्रस्तुत किये। साथ ही कुशल पूछने में अत्यन्त चतुर श्रीराधा श्रीहरि से आदरपूर्वक कुशल भी पूछती जा रही थीं। कोटि-कोटि तरूण कंदर्पों के माधुर्य को हर लेने वाले श्रीहरि का दर्शन करके राधाने सम्पूर्ण दुःख उसी प्रकार त्याग दिया, जैसे ब्रह्म का बोध प्राप्त होने पर ज्ञानी गुणों के प्रति तादात्म्य का भाव छोड़ देता है। कीर्तिकुमारी ने प्रसन्न होकर श्रृंगार धारण किया। श्रीकृष्ण जब परदेश के पाथिक होकर गये थे, तब से उन्होंने अपने शरीर पर श्रृंगार धारण नहीं किया था, न कभी चन्दन लगाया, न पान खाया, न सुधासदृश स्वादिष्ट भोजन ही ग्रहण किया। न दिव्य सेज की रचना की ओर न कभी किसी के साथ हास-परिहास ही किया। परिपूर्णतम भगवान की प्रियतमा आनन्द के आँसू बहाती हुई अपने परिपूर्णतम प्रियतम श्रीकृष्ण से गद्गद वाणी मे बोली। श्री राधा ने कहा- प्यारे ! यादव पुरी मथुरा कितनी दूर है, जो अबतक नहीं आयें ? वहाँ तुम क्या करते रहे ? मैं अपने एकान्त दुःख को कैसे बताऊं ? तुम तो सब के साक्षी हो, अतः सब जानते हो। राजा सौदास की रानी मदयन्ती, नल की प्यारी रानी दमयन्ती तथा मिथिलेशनन्दिनी सीता- इन तीनों मे कोई यहाँ नहीं है। फिर किसको सामने रखकर इस इस वैरी विरह के दुःख का मैं वर्णन करूँ ? ये गोपांग्नाएँ भी मेरी-जैसी परिस्थिति में ही हैं, अत: वे भी कभी इस दु:ख का निरूपण करने मे समर्थ नही हैं। जैसे चकोरी शरत्काल के चन्द्रमा को और मयूरी नूतन मेघ को देखना चाहती है, उसी प्रकार मैं तुम श्रीवृन्दावनचन्द्र तथा घनश्याम को देखने के लिए उत्कण्ठित रहती हूँ। तुम्हारे सखा उद्धव धन्य हैं, जिन्होंने शीघ्र ही तुम्हारा दर्शन करा दिया। इस व्रज मे दूसरा कोई ऐसा नही है, जिसके प्रेम से यहाँ आते । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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