गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 21
तृतीय दुर्ग के द्वार-देवताओं के दर्शन और पूजन की महिमा तथा पिण्डारक-तीर्थ का माहात्म्य श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! तृतीय दुर्ग के पूर्वद्वार पर महाबली हनुमानजी अहर्निश पहरा देते हैं। जो मनुष्य वहाँ महाबली भगवद्भक्त हनुमानजी का दर्शन कर लेता है, वह हनुमानजी की ही भाँति महान भगवद्भक्त होता है। इसी प्रकार दक्षिणद्वार की सुदर्शनचक्र दिन-रात रक्षा करता है। राजन् ! उस सुदर्शन का चित्त सदा श्रीकृष्ण में ही लगा रहता है। उसके दर्शनमात्र से मानव श्रीहरि का उत्तम भक्त होता है। सुदर्शनचक्र उस भक्त की भी सदा रक्षा किया करता है। इसी तरह पश्चिमद्वार की बलवान ऋक्षराज जाम्बवान रक्षा करते हैं। राजन् ! वे निरन्तर भगवद्भजन में लगे रहते हैं। उन महाबली भगवदभक्त जाम्बवान् का दर्शन करके मनुष्य इस लोक में चिरंजीवी तथा श्रीहरि का भक्त होता है। इस प्रकार महाबली विष्वक्सेन उत्तर द्वार की अहर्निश रक्षा करते हैं। राजन् ! श्रीकृष्ण के विशाल हृदय हैं। उनके दर्शनमात्र से मनुष्य कृतार्थ हो जाता है। दुर्ग से बाहर ‘पिण्डारक-तीर्थ’ है, उसकी महिमा सुनो। राजशिरोमणे ! पिण्डारक-तीर्थ का माहात्म्य ध्यान देकर सुनों, जिसके स्मरणमात्र से मनुष्य बड़े-बडे़ पापों से छुटकारा पा जाता है। रैवतक पर्वत और समुद्र के बीच में पिण्डारक क्षेत्र है जो तीर्थों में उत्तम तीर्थ और अर्थ-सिद्ध का द्वाररूप है। विदेहराज ! उसी तीर्थ में महाबली यदुराज ने परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर यज्ञों के राजा राजसूय का अनुष्ठान किया था। राजन् ! राजा उग्रसेन के उस उत्तम यज्ञ में समस्त तीर्थों का आवाह्न किया गया था और वे तीर्थ सब ओर से आकर उसमें निवास करने लगे। सम्पूर्ण तीर्थों के पिण्डीभूत होने से उस तीर्थ का नाम ‘पिण्डारक’ हुआ। उसमें स्नान करके मनुष्य तत्काल राजसूय यज्ञ का फल पा लेता है। वहीं तीन दिन तक स्नान करके व्रत का पालन करते हुए एकाग्रचित्त हो जो ब्राह्मणों को स्वर्णदान देकर उनके चरणों में प्रणत होता है, वह महात्मा यहीं नरदेव होता है- इसमें संशय नहीं हैं। वह प्रतिदिन वन्दीजनों के द्वार अपना यशोगान सुनता है, स्वर्ण, रत्न और उत्तम वस्त्रआदि से सम्पन्न होता है। चन्द्रमुखी ललनाओं के समुदाय उसकी सेवा में रहते हैं। वह नित्य हष्ट–पुष्ट और महाबलवान होता है। उसके दरवाजे पर दिन-रात घन-गर्जन के समान दुन्दुभियाँ बजती रहती हैं। वह देखता है कि उसके बाहरी एवं भीतरी आंगन में गजराज चिग्घाड़ते और घोड़े हिनहिनाते रहते हैं तथा नरेशों की भीड़ लगी रहती है और उसके रत्नमय महलों पर अनकानेक ध्वज फहराते रहते हैं। मतवाले हाथियों के कानों से प्रताडित भ्रमर मण्डली उसके सामन्त– नरेशों द्वारा मण्डित द्वारा की शोभा बढाती है। पिण्डारक-तीर्थ में स्नान किये बिना इस लोक में किसी को राज्य कैसे प्राप्त हो सकता है और पापात्मा मनुष्य भी उस तीर्थ में स्नान किये बिना जीवन के अन्त में मोक्ष कैसे पा सकता है ? पिण्डारक तीर्थ में स्नान किये बिना किसी को शर्म की प्राप्ति नहीं होती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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