गर्ग संहिता
गिरिराजखण्ड : अध्याय 9
गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति का वर्णन बहुलाश्व ने पूछा– देवर्षे ! महान आश्चर्य की बात है, गोवर्धन साक्षात पर्वतों का राजा एवं श्रीहरि को बहुत ही प्रिय है। उसके समान दूसरा तीर्थ न तो इस भूतल पर है और न स्वर्ग में ही। महमते ! आप साक्षात श्रीहरि के हृदय हैं। अत: अब यह बताइये कि यह गिरिराज श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल से कब प्रकट हुआ। श्रीनारदजी ने कहा- ‘राजन ! महामते ! गोलोक के प्राकट्य वृत्तान्त सुनो– यह श्रीहरि की आदि लीला से सम्बन्ध है और मनुष्यों को धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष- चारों पुरुषार्थ करने वाला है। प्रकृति से परे विद्यमान साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण सर्वसमर्थ, निर्गुण पुरुष एवं अनादि आत्मा हैं। उनका तेज अन्तर्मुखी है। वे स्वयं प्रकाश प्रभु निरन्तर रमणशील हैं, जिन पर धामाभिमानी गणनाशील देवताओं का ईश्वर 'काल' भी शासन करने में समर्थ नहीं है। राजन ! माया भी जिन पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, उन पर महत्तत्व और सत्त्वादि गुणों का वश तो चल ही कैसे सकता है। राजन ! उनमें कभी मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार का भी प्रवेश नहीं होता। उन्होनें अपने संकल्प से अपने ही स्वरूप में साकार ब्रह्म को व्यक्त किया। सबसे पहले विशालकाय शेषनाग का प्रादुर्भाव हुआ, जो कमलनाल के समान श्वेतवर्ण के हैं। उन्हीं की गोद में लोकवन्दित महालोक गोलोक प्रकट हुआ, जिसे पाकर भक्तियुक्त पुरुष फिर इस संसार में नहीं लौटता। फिर असंख्य ब्रह्मण्डों के अधिपति गोलोकनाथ भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्द से त्रिपथगा गंगा प्रकट हुई। नरेश्वर ! तत्पश्चात् श्रीकृष्ण के बायें कंधे से सरिताओं में श्रेष्ठ यमुनाजी का प्रादुर्भाव हुआ, जो श्रृंगार-कुसुमों से उसी प्रकार सुशोभित हुई, जैसे छपी हुई पगड़ी के वस्त्र की शोभा होती है। तदनन्तर भगवान श्रीहरि के दोनों गुल्फों (टखनों या घुट्ठियों) से हेमरत्नों से युक्त दिव्य रासमण्डल और नाना प्रकार के श्रृंगार-साधनों के समूह का प्रादुर्भाव हुआ। इसके बाद महात्मा श्रीकृष्ण की दोनों पिंडलियों से निकुंज प्रकट हुआ, जो सभा भवनों, आँगनों, गलियों और मण्डपों से घिरा हुआ था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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