गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 34
अनिरुद्ध के हाथ से वृक दैत्य का वध श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! संग्रामजित के द्वारा उस महायुद्ध में भूत-संतापन के मारे जाने पर दैत्य सेनाओं में महान हाहाकार मच गया। तब शकुनि, वृक, कालनाभ और महानाभ तथा हरिशमश्रु ये पांच वीर रण भूमि में उतरे। श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न शकुनि के साथ युद्ध करने लगे और अनिरुद्ध वृक के साथ। साम्बकाल नाभ से और दीप्तिमान महानाभ से भिड़ गये। बलवान वीर श्रीकृष्णकुमार भानु हरिशमश्रु नामक असुर के साथ लड़ने लगे। सबके आगे थे धनुर्धरों में श्रेष्ठ अनिरुद्ध। वे अपने बाणों द्वारा दैत्यों को उसी प्रकार विदीर्ण करने लगे, जैसे इन्द्र वज्र से पर्वतों का भेदन करते हैं। अनिरुद्ध के बाणों से दैत्यों के पैर, कंधे और घुटने कट गये। वे सब के सब मूर्च्छित हो तेज हवा के उखाड़े हुए वृक्षों की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े। अनिरुद्ध के तीखे बाणों से जिनके मेघडम्बर (हौदे), कुम्भ स्थल और सूंड़े छिन्न-भिन्न हो गयी थीं, दाँत टूट गये और कक्ष कट गये थे, वे हाथी रणभूमि में उसी प्रकार गिरे, जैसे वज्र के आघात से पर्वत ढह जाते हैं। हाथियों के दो टुकड़े होकर पड़े थे और उनके ऊपर कशमीरी झूल चमक रही थी। हाथियों के विदीर्ण कुम्भस्थलों से इधर-उधर बिखरे हुए मोती चमक रहे थे। राजेन्द्र ! वे बाणजन्य अन्धकार में उसी प्रकार उदीप्त हो रहे थे, जैसे रात में तारे चमचमाते हैं। अनिरुद्ध के बाणों से प्रधर्षित कितने ही वीर मूर्च्छित होकर भूमि पर पड़े थे। वह दृश्य अद्भुत-सा प्रतीत होता था। कितने ही रथी भूमि पर गिरे थे और उनके रथ सूने खड़े थे। कुछ योद्धाओं के कटे हुए मस्तक ऐसे दिखायी देते थे जैसे हाथी के पेट मैं कैथ के फल। राजेन्द्र ! एक ही क्षण में उस संग्राम के भीतर दैत्यों की सेनाओं में इतना अधिक रक्त गिरा कि उसकी भयानक नदी बह चली। हाथी उसमें ग्राह के समान जान पड़ते थे; ऊँटों एवं गधों के धड़ एवं मुख आदि कच्छप जान पड़ते थे; रथ सूंस के समान प्रतीत होते थे, केश सेवार का भ्रम उत्पन्न करते थे और कटी हुई भुजाएँ सर्पिणी सी जान पड़ती थीं। कटे हाथ उस में मछलियां थे और मुकुट, रत्न हार एवं कुण्डल कंकड़ पत्थर का स्थान ले रहे थे। शस्त्र, शक्ति, छत्र, शंख चंवर और ध्वज वालु का राशि के समान थे, रथों के चक्के भंवर का भ्रम पैदा करते थे। दोनों ओर की सेनाएँ ही उस रक्त-सरिता के दोनों तट थीं। नृपेश्वर ! सौ योजन तक फैली हुई वह खून की नदी वैतरणी के समान भयंकर जान पड़ती थी। प्रमथ, भैरव, भूत, बेताल और योगिनीगण उस रण मंडल में अट्टहास करते, नाचते और निरन्तर खप्पर में खून लेकर पीते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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