गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 11
ऋत्विजों का वरण-पूजन; श्यामकर्ण अश्व का आनयन और अर्चन; ब्राह्मणों को दक्षिणादान; अश्व के भालदेश में बँधे हुए स्वर्णपत्र पर गर्गजी के द्वारा उग्रसेन के बल-पराक्रम का उल्लेख तथा अनिरूद्ध को अश्व की रक्षा के लिए आदेश श्रीगर्गजी कहते हैं- तदनन्तर सुधर्मा-सभा में वासुदेव से प्रेरित हो राजा उग्रसेन ने वहाँ पधारे हुए ऋत्विजनों को मस्तक झुकाकर प्रणाम करके प्रसन्न किया और विधिवत उन सबका वरण किया। पराशर, व्यास, देवल, च्यवन, उसित, शतानन्द, गालव, याज्ञवल्क्य, बृहस्पति, अगस्त्य, वामदेव, मैत्रेय, लोमश, कवि (शुक्राचार्य), मैं (गर्ग), क्रतु, जैमिनी, वैशम्पायन, पैल, सुमन्तु, कण्व, भृगु, परशुराम, अकृतव्रण, मधुच्छनदा, वीतिहोत्र, कवष, धौमय, आसुरि, जाबाली, वीरसेन, पुलस्त्य, पुलह, दूर्वासा, सरीचि, एकत, द्वित, त्रित, अंगिरा, नारद, पर्वत, कपिलमुनि, जातूकर्ण, उतथ्य, संवर्त, ऋष्यभंग, शाण्डिल्य, प्राड्विपाक, कहोड, सुरत, मुनु, कच, स्थूलीशिरा, स्थूलाक्ष, प्रति-मर्दन, बकदाल्भ्य, कौण्डिन्य, रैभ्य, द्रोण, कृप, प्रकटाश, यवक्रीत, वसुधन्वा, मित्रभू, अपान्तरतमा, दत्तामेत्र, महामुनि, मार्कण्डेय, जमदग्नि, कश्यप, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, मुनि वशिष्ठ, विश्वामित्र, पतंजली, कात्यायन, पाणिनी और वाल्मिकि आदि ऋत्विजों का यादवराज उग्रसेन ने पूजन किया। नरेश्वर ! वे सभी निमन्त्रित ऋत्विज बड़े प्रसन्न होकर राजा से बोले। मुनियों ने कहा- देव दावन वन्दित महाराज उग्रसेन ! तुम यज्ञ का आरम्भ करो। श्रीकृष्ण की कृपा से वह अवश्य पूर्ण होगा। उन महर्षियों का वचन सुनकर अन्धककुल के स्वामी राजा उग्रसेन की सम्पूर्ण इन्द्रियां संतुष्ट हो गयीं। उन्होंने यज्ञ की सारी सामग्री एकत्र की। तदनंतर ब्राह्मणों ने सोने के हलों से यज्ञ की भूमि जोती तथा पिण्डारक तीर्थ के समीप विधिपूर्वक राजा को यज्ञ की दीक्षा दी। चार योजन तक की विशाल भूमि को जोतकर राजा ने वहाँ यज्ञ के लिए मण्डप बनवाये। योनि और मेखला से युक्त मध्यकुण्ड का निर्माण करके उसमें विधिपूर्वक अग्नि की स्थापना की। व्रजभान ! मेरे कहने से राजा उग्रसेन ने अनेक रत्नों से विभूषित और ध्वजा-पताकाओं से मण्डित सभा मण्डल बनवाया। उस सभाभवन को देखकर श्रीकृष्ण ने अपने पुत्र से कहा। श्रीकृष्ण बोले- प्रद्युम्न ! मेरी बात सुनो और सुनकर तत्काल उसका पालन करो। जाओ, शस्त्रधारी शूरवीरों के साथ यत्नपूर्वक अश्वमेधीय अश्व को यहाँं लेकर आओ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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