गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 10
धोबी, दर्जी और सुदामा माली के पूर्वजन्म का परिचय नारदजी ने कहा – विदेहराज ! त्रेतायुग की बात है, अयोध्यापुरी में श्रीरामचन्द्रजी राज्य करते थे। उनके राज्यकाल में प्रजा की मनोवृति एवं दु:ख-सुख जानने के लिये गुप्तचर घूमा करते थे। एक दिन उन गुप्तचरों के सुनते हुए किसी धोबी ने अपनी भार्या से कहा– ‘तू दुष्टा है और दूसरे के घर में रहकर आयी है, इसलिये अब तुझे मैं नहीं रखूँगा। स्त्री के लोभी राजा राम भले ही सीता को रख ले, किंतु मैं तुझे नहीं स्वीकार करूँगा।’ इस प्रकार बहुत-से लोगों के मुख से आक्षेपयुक्त बात सुनकर श्रीराघवेन्द्र ने लोकापवाद के भय से सहसा सीता को वन में त्याग दिया। रघुकुल-तिलक श्रीरामने उस धोबी को दण्ड देने की इच्छा नहीं की। वही द्वापर के अन्त में मथुरापुरी में फिर धोबी ही हुआ। उसने सीता के प्रति जो कुवाच्य कहा था, उस दोष की शान्ति के लिये श्रीहरि ने स्वयं ही उसका वध किया, तथापि उन श्रीकरूणानिधि ने उस धोबी को मोक्ष प्रदान किया। राजन् ! दयालु श्रीकृष्णचन्द्र का यह परम अद्भुत चरित्र मैंने तुमसे कहा। अब पुन: क्या सुनना चाहते हो?। बहुलाश्व ने पूछा – मुनिश्रेष्ठ ! पूर्वजन्म में वह दर्जी कौन था, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने अपना सारूप्य प्रदान किया ? । श्रीनारदजी कहा– राजन् ! पहले मिथिलापुरी एकी दर्जी था, जो भगवान श्रीहरि के प्रति भक्तिभाव रखता था। उसने श्रीराम के विवाह के समय राजा सीरध्वज जनक की आज्ञा से श्रीराम और लक्ष्मण के दूलह-वेष के लिये महीन डोरों से कपड़े सीये थे। वह वस्त्र सीने की कला में अत्यंत कुशल था। राजन् ! करोड़ों कामदेवों के समान लावण्य वाले सुन्दर श्रीराम और लक्ष्मण को देखकर को वह महामनस्वी दर्जी मोहित हो गया था। उसने मन-ही-मन यह इच्छा की कि मैं कभी अपने हाथों से इनके अंगों में वस्त्र पहिनाउँ। श्रीरघुनाथजी सर्वज्ञ हैं। उन्होंने मन-ही-मन उसे वर दे दिया कि ‘द्वापर के अन्त में भारतीय व्रज-मण्डल में तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा’ श्रीरामचन्द्र जी वरदान से वही यह दर्जी मथुरा में प्रकट हुआ था, जिसने उन दोनों बन्धुओं की वेष-रचना करके उनका सारूप्य प्राप्त कर लिया । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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