गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 51
उनकी ये बातें सुनकर गद भी दु:खी हो गए और भीम को आश्वासन देकर उन्होंने सारी बातें विस्तारपूर्वक कह सुनाईं। वह सब सुन कर भीम सेन को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे अनिरुद्ध आदि श्रेष्ठ यादव वीरों को साथ लेकर धर्मनंदन युधिष्ठिर के समीप गए। राजन् ! यादवों का आगमन सुनकर अजातशत्रु युधिष्ठिर को बड़ा हर्ष हुआ और वे नकुल आदि के साथ उनकी अगवानी के लिए आश्रम से बाहर निकले। नरेश्वर ! समस्त यादवों ने उनके चरणों में प्रणाम किया और युधिष्ठिर ने उन्हें उत्तम आशीर्वाद दे बड़ी प्रसन्नता के साथ उन सबको द्वैतवन में ठहराया। राजा युधिष्ठिर सूर्यदेव की दी हुई बटलोई के प्रभाव से वहाँ आए हुए सब अतिथियों को यथायोग्य उनकी रुचि के अनुरूप भोजन दिया। परंतप ! वहाँ एक रात रह कर प्रात:काल प्रद्युम्न कुमार अनिरुद्ध पाण्डवों को यज्ञ का निमंत्रण दे, घोड़े को मुक्त कराकर यादवों के साथ वहाँ से शीघ्र चल दिए और घोड़े के पीछे–पीछे सारस्वत देशों में गए । राजन् ! बहुत से वीर–विहीन देशों को छोड़ कर वह अश्वराज इच्छानुसार विचरता हुआ कौन्तलपुर में गया। महाराज ! उस नगर में चंद्रहास नामक वैष्णव राजा राज्य करता था, जो केरल देश के राजा का पुत्र था और कुलिन्द ने उसका पालन किया था। वह भगवान श्रीकृष्ण के प्रसाद से वहाँ राज्य करता था। राजन् ! भक्त चंद्रहास की कथा जैमिनी महाभारत में वर्णित है। नारदजी ने अर्जुन के सामने चंद्रहास के जीवन वृत्त का विस्तारपूर्वक वर्णन किया था। उस कौन्तलपुर में सब लोग श्रीकृष्ण के भक्त होकर रहते हैं। वे सब के सब ब्राह्मण भक्त, पुण्य परायण, पर स्त्री परांगमुख, अपनी ही पत्नी में अनुराग रखने वाले सतत श्रीकृष्ण की समाराधना में संलग्न रहने वाले थे। वे गोविंद की गाथाएँ और पुराण कथा सुनते तथा बड़े आनंद से श्रीराधा और माधव के नाम जपते थे। वहाँ के द्विज दो ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धारण करते, तुलसी की मालाएँ पहनते और गोपी चंदन, केसर तथा हरित चंदन से चर्चित रहते थे। वे सब ललाट में श्याम बिंदु धारण करते, उनमें से कोई ही कोई ऐसे थे, जो श्री तिलक लगाते थे। वहाँ के सभी वैष्णव बारह तिलक और आठ मुद्राएँ धारण करते थे। ब्राह्मण आदि वर्ण के गृहस्थ लोग प्रतिदिन प्रात:काल गोपी चंदन से युक्त शीतल मुद्रा धारण करते थे। कोई-कोई विरक्त और संन्यासी साधु अग्नि संस्कार के लिए तप्तमुद्रा धारण करते थे। उस नगर मे इधर–उधर देखता हुआ वह घोड़ा राजभवन में जा पहुँचा, जहाँ राजा चंद्रहास चंद्रमा के समान शोभा पाता था । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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