गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 50
कृपाचार्य बोले- मधुसूदन ! कैटभनाशन लोकनाथ मेरे जन्म का यही फल है, यही हमारी प्रार्थनीय वस्तु है और यही मुझ पर आपका अनुग्रह है कि आप मुझे अपने भृत्य के भृत्य के परिचारक के दास के–दास के दास का–दास मान कर इसी रूप में याद रखें ।[1] कर्ण ने कहा– माधव ! मेरा धन अपने भक्त के लिए क्षीण हो, अर्थात उन्हीं के काम आवे। मेरा यौवन अपनी ही पत्नी के उपयोग में आवे तथा मेरे प्राण अपने स्वामी के कार्य में ही चले जाएं और अंत में आप मेरे लिए प्राप्तव्य वस्तु के रूप में शेष रहें ।[2] भूरि बोले- वरद ! नाथ ! हम आपसे कोई ऐसी वस्तु मांग रहे हैं जो दूसरों से नहीं मिल सकती। यदि आपकी मुझ पर सुमुखी दिव्य दृष्टि है तो वही दीजिए। देव ! हमने आज विवश होकर आपके सामने यह अंजलि बांधी है। जन्मान्तर में भी मेरी यह अंजलि आपके सामने इसी प्रकार बंधी रहे ।[3] दुर्योधन ने कहा– मैं धर्म को जानता हूँ, किंतु उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है। मैं पाप को भी समझता हूं, किंतु उससे निवृत्त नहीं हो पाता हूँ। कोई देवता मेरे हृदय में बैठकर मुझे जिस काम में लगाता है, मैं वही काम करता हूँ। मधुसूदन ! यंत्र के गुण–दोष से प्रभावित न होकर मुझे क्षमा कीजिए। मैं यंत्र हूँ और आप मंत्री हैं (गुण–दोष का उत्तरदायी यंत्री ही होता है, यंत्र नहीं ), अत: आप मुझे दोष न दीजिएगा ।[4] भीष्ण बोले- योगीन्द्र ! जिन्हें गोपियों ने रागान्ध होकर चूमा है, योगीन्द्र और भोगीन्द्र (शेषनाग जिनका मन से सेवन करते हैं तथा जो कुछ–कुछ लालकमल के समान कोमल हैं, उन्हीं आफके इन चरणों के लिए मेरी यह अंजलि जुड़ी हुई है।[5] विदुर ने कहा– जो लोग छोटे बालक की भाँति ब्रह्मा का परिपालन करते हैं, अर्थात जैसे माता–पिता बच्चे की सदा संभाल रखते हैं, उसी तरह जो निरंतर ब्रह्म–चिंतन में लगे रहते हैं, उनके शुभाशुभ कर्म वैसे ही हैं, जैसे बेचने वालों की वस्तुएँ। तात्पर्य यह है कि जैसे बिकी हुई वस्तु पर विक्रेता का स्वत्व नहीं होता उसी प्रकार अपने द्वारा किए गए शुभारंभ कर्म पर ब्रह्मनिष्ठ पुरुष अहंता–ममता का भाव नहीं रखते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कृपाचार्य उवाच –
मज्जन्मन: फलमिदं मधुकैटभारे मत्प्रार्थनीयमदनुग्रह एष एवं। त्वद्भृत्यभृत्यपरिचारकभृत्यभृत्यभृत्स्य भृत्य इति मां स्मर लोकनाथ।। - ↑ कर्ण उवाच -
भक्तस्यार्थे धनं क्षीणं स्वदारागतयौवनम्। स्वामिकार्ये गता: प्राणा अन्ते तिष्ठ माधव:।। 34।। - ↑ भूरिरुवाच –
याचामहे वरद किंचिदनन्यलभ्यं नाथ प्रसीद सुमुखी यदि दिव्यदृष्टि:। अस्माभिरकञ्जलिरयं वेवशैर्निवद्ध एषऐव मे भवतु देव भवान्तरेऽपि।। 35।। - ↑ दुर्योधन उवाच –
जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिर्जानामि पापं न च मे निवृत्ति:।
केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।। 36।।
यंत्रस्य गुणदोषेण क्षम्यतां मधुसूदन।
अहं यंत्रो भवान् यन्त्री मम दोषो न दीयताम्।। 37।। - ↑ भीष्ण उवाच –
रागान्धगोपीजनचुम्बताभ्यां योगीन्द्रभोगीन्द्रनिषेविताभ्याम्।
आताम्रपंखेरूहलकोमलाभ्यां ताभ्यां पदाभ्यामयमञ्जिलर्मे।। 38।।
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