गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 50
(अत: उनके वे कर्म बंधन कारक नहीं होते हैं) ब्रह्म कैसा है ? इसके उत्तर में इतना ही कहा जा सकता है कि वह दैत्य, देवता और मुनियों के लिए मन से भी अगम्य है। वेद नेति–नेति कह कर उसका वर्णन करता है। किंतु उसको जान नहीं पाता। (प्रभो ! वह ब्रह्म आप ही हैं) ।[1] श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! शरण में आए हुए कौरवों के इस प्रकार प्रार्थना करने पर भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न हो मेघ के समान गंभीर वाणी में उनसे बोले । श्रीकृष्ण ने कहा– आर्य पुरुषों ! मेरी बात सुनिए। मैं नारदजी से प्रेरित होकर यहाँ युद्ध रोकने के लिए ही आया हूँ। मेरे पुत्र निरंकुश (स्वच्छंद) हो गए हैं, अत: मेरी आज्ञा नहीं मानते हैं। ये बड़े–बड़े लोगों का अपराध कर बैठते हैं, जो बड़ा भारी दोष है। आप लोग धन्य और माननीय हैं कि हमसे मिलने के लिए आए हैं। मेरे पुत्रों ने जो कुछ किया है वह सब आप लोग क्षमा कर दें। वीरों ! उग्रसेन का घोड़ा आप लोग कृपापूर्वक छोड़ दें और इसकी रक्षा करने के लिए आप लोग भी चलें, अवश्य चलें। यादव और कौरव तो मित्र हैं। पहले से चले आते हुए प्रेम–संबंध को दृष्टि में रखकर इन्हें आपस में कलह नहीं करना चाहिए । इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने जब मीठे वचनों द्वारा संतोष प्रदान किया तब कौरवों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ बहुमूल्य भेंट सामग्री सहित अश्व को लौटा दिया। राजन् ! घोड़ा लौटाकर अन्य सब कौरव तो मन ही मन खेद का अनुभव करते हुए अपने नगर में चले गए। परंतु भीष्मजी ने यादव सेना के साथ अश्व की रक्षा के लिए जाने का विचार किया । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विदुर उवाच –
आस्तेऽतिविक्रयकृतां सुकृतानि तानि ये ब्रह्म बालमिव तत्परिपालयन्ति।
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